प्रतिभागियों को यहां कहानियों और व्यावहारिक गतिविधियों के माध्यम से प्राचीन अनाज, देशज पौधों और पारंपरिक स्वाद के बारे में बताया गया। कार्यक्रम का उद्देश्य विलुप्त होती सामग्रियों और उनकी पारिस्थितिकी महत्व को समझाना और जैव विविधता के प्रति जागरूकता बढ़ाना था। यह आयोजन न केवल सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ने का एक माध्यम बना, बल्कि इसे संरक्षित करने की प्रेरणा भी दी गई। इस कार्यशाला में स्थानीय खाद्य संस्कृति, प्राचीन अनाज, देशज पौधों और पारंपरिक व्यंजनों को नई दृष्टि से जानने और समझने का मौका मिला।
खाद्य संस्कृति और विलुप्त होते स्वाद
प्रतिभागियों को राजस्थान के प्राचीन अनाज और उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में बताया गया। खाद्य शोधकर्ता दीपाली ने बताया कि जो कि राजस्थान के कई प्राचीन अनाज, सिर्फ पोषण के लिए नहीं बल्कि हमारे पारिस्थितिक संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इनका प्रयोग आज के समय में घटता जा रहा है। ऐसे में नई पीढ़ी को इन अनाजों के महत्व को दोबारा समझाने और उनके पारंपरिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिए प्रेरित करना ज़रूरी है। विलुप्त हो रहे अनाज हमारी विरासत है और इन्हें संरक्षित करना हमारी जिम्मेदारी है।
खाद्य और प्रकृति का संबंध
किशन बाग की वरिष्ठ प्रकृतिवादी मेनाल ने बताया कि, यह जरूरी है कि हम सिर्फ पौधों और अनाजों की बात न करें, बल्कि उनके साथ जुड़ी पारिस्थितिकी और जैव विविधता को भी समझें। इसलिए प्रतिभागियों को खाद्य और प्रकृति के बीच गहरे संबंध के बारे में भी बताया गया है।
जैव विविधता की ओर बढ़ता कदम
राजस्थान के पारंपरिक व्यंजनों के साथ-साथ विलुप्त हो रही सामग्रियों की उपयोगिता पर भी चर्चा की गई। इन सामग्रियों को केवल स्वाद के तौर पर नहीं बल्कि एक समृद्ध इतिहास के हिस्से के रूप में देखा गया। प्रतिभागियों ने इस बात पर जोर दिया कि इन अनमोल स्वादों और उनके प्राकृतिक स्रोतों को बचाना बेहद जरूरी है।
संस्कृति और प्रकृति का अनूठा संगम
एक प्रतिभागी ने बताया कि यह कार्यशाला सिर्फ एक अनुभव नहीं, बल्कि एक संदेश भी था। हमने ये महसूस किया कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर और पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए जरूरी है कि हम अपने पारंपरिक खाद्य पदार्थों और उनकी उत्पत्ति को फिर से अपनाएं। वहीं एक अन्य प्रतिभागी ने बताया कि यह अनोखी कार्यशाला राजस्थान के स्वादों और परंपराओं को संरक्षित करने की दिशा में ज्ञानवर्धक रही।