चीन को मिल गई वो नस, जिसे दबाने पर घुटनों पर आ जाएगा अमेरिका!
चीन का यह कदम केवल आर्थिक नहीं, बल्कि जियो-पॉलिटिक्स भी है। विशेषज्ञों का मानना है कि बीजिंग अमेरिका को यह संदेश देना चाहता है कि वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी बादशाहत का इस्तेमाल हथियार के रूप में कर सकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा शुरू किए गए ट्रेड वॉर ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया है, लेकिन अब चीन ने उस ‘हथियार’ को हाथ में ले लिया है, जिसके एक झटके से अमेरिका की तकनीकी और सैन्य ताकत घुटनों पर आ सकती है। ड्रैगन ने सात महत्वपूर्ण दुर्लभ खनिजों (रेयर अर्थ एलिमेंट्स) और चुंबकों के निर्यात पर अचानक रोक लगा दी है, जिसने न केवल अमेरिका, बल्कि पूरी दुनिया में हड़कंप मचा दिया है। यह कदम ट्रंप के हालिया टैरिफ की घोषणा के जवाब में आया है, और इसे चीन की रणनीतिक ‘प्रिसिजन स्ट्राइक’ के तौर पर देखा जा रहा है।
चीन ने सैमेरियम, गैडोलिनियम, टर्बियम, डिस्प्रोसियम, ल्यूटेशियम, स्कैंडियम और यट्रियम जैसे सात मध्यम और भारी दुर्लभ खनिजों पर निर्यात नियंत्रण लागू किए। इसके साथ ही इन खनिजों से बने चुंबक और अन्य उत्पादों को भी निर्यात लाइसेंस की अनिवार्यता के दायरे में लाया गया है। चीन, जो वैश्विक स्तर पर 90% दुर्लभ खनिजों का उत्पादन और 99.9% भारी दुर्लभ खनिजों की प्रोसेसिंग करता है, ने इस कदम से अमेरिकी रक्षा, ऑटोमोबाइल, एयरोस्पेस और सेमीकंडक्टर उद्योगों की कमर तोड़ने की रणनीति अपनाई है।
नई विनियामक प्रणाली के तहत, चीनी बंदरगाहों पर इन खनिजों और चुंबकों से लदे जहाजों को रोक दिया गया है। यह प्रणाली लागू होने के बाद अमेरिकी सैन्य ठेकेदारों और कुछ चुनिंदा कंपनियों को इन सामग्रियों की आपूर्ति पूरी तरह बंद हो सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि लाइसेंसिंग प्रक्रिया में देरी और सख्ती के चलते वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में कम से कम 45 दिनों तक व्यवधान रहेगा, जिससे स्टॉकपाइल्स खत्म हो सकते हैं।
दुर्लभ खनिज 17 धातुओं का समूह हैं, जो आधुनिक तकनीक और रक्षा प्रणालियों की रीढ़ हैं। इनका उपयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में होता है:
रक्षा उद्योग: जेट इंजन, मिसाइल गाइडेंस सिस्टम, लेजर, रडार, ड्रोन और सैटेलाइट्स में। उदाहरण के लिए, नियोडिमियम और डिस्प्रोसियम से बने चुंबक फाइटर जेट्स और मिसाइलों के लिए अनिवार्य हैं।
इलेक्ट्रॉनिक्स और एआई: स्मार्टफोन, कंप्यूटर चिप्स, एआई सर्वर और कैपेसिटर में। गैलियम और जर्मेनियम से बने सेमीकंडक्टर माइक्रोचिप्स और उन्नत रडार सिस्टम के लिए महत्वपूर्ण हैं।
ऑटोमोबाइल: इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की मोटरों में नियोडिमियम चुंबक और गैसोलीन कारों की इलेक्ट्रिक मोटरों में। टेस्ला और बीवायडी जैसे दिग्गज इन चुंबकों पर निर्भर हैं।
स्वच्छ ऊर्जा: विंड टर्बाइन, सोलर सेल और बैटरी प्रौद्योगिकियों में।
अन्य: एलईडी लाइट्स, स्पार्क प्लग, और अंतरिक्ष यान के पुर्जों में।
चीन की इस पाबंदी ने इन सभी उद्योगों को खतरे में डाल दिया है, क्योंकि अमेरिका के पास केवल एक दुर्लभ खनिज खदान (माउंटेन पास, कैलिफोर्निया) है और वह भी पूरी तरह चीन पर निर्भर है। अमेरिकी रक्षा विभाग ने 2027 तक स्वतंत्र आपूर्ति श्रृंखला विकसित करने का लक्ष्य रखा है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह लक्ष्य अभी दूर की कौड़ी है।
अमेरिका पर क्या होगा असर?
चीन की इस रणनीति ने अमेरिका की रक्षा और तकनीकी क्षेत्रों को सीधे निशाने पर लिया है। प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं:
रक्षा क्षेत्र में संकट: अमेरिकी रक्षा प्रणालियों, जैसे हाइपरसोनिक हथियार, सैटेलाइट्स और उन्नत रडार, इन खनिजों के बिना अप्रचलित हो सकते हैं। नियोकोर्प डेवलपमेंट्स के सीईओ मार्क ए. स्मिथ ने इसे “पेंटागन की आपूर्ति श्रृंखला पर सटीक हमला” करार दिया।
उद्योगों में व्यवधान: सेमीकंडक्टर, ऑटोमोबाइल और स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्रों में उत्पादन रुक सकता है। टेस्ला, ऐप्पल और रेथियॉन जैसी कंपनियां, जो चीन से खनिजों की आपूर्ति पर निर्भर हैं, संकट का सामना कर सकती हैं।
मूल्य वृद्धि: पाबंदी के बाद कुछ खनिजों, जैसे एंटीमनी की कीमत $14,000 से बढ़कर $60,000 प्रति टन हो गई है। अन्य खनिजों की कीमतों में 500% तक की वृद्धि की आशंका है।
दीर्घकालिक चुनौती: अमेरिका को स्वतंत्र खनन और प्रोसेसिंग सुविधाएं विकसित करने में वर्षों लगेंगे। मौजूदा सुविधाएं, जैसे एमपी मटेरियल्स, 2025 तक केवल 1,000 टन नियोडिमियम चुंबक बना सकेंगी, जो चीन के 2018 के 138,000 टन के उत्पादन का 1% से भी कम है।
जापान-भारत पर क्या पड़ेगा असर
जापान: 2010 में चीन द्वारा दुर्लभ खनिजों की आपूर्ति रोकने का सामना कर चुका जापान अब अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर वैकल्पिक आपूर्ति श्रृंखलाएं विकसित कर रहा है।
यूरोप: यूरोपीय देशों ने आपूर्ति व्यवधान को लेकर चिंता जताई है और रीसाइक्लिंग और नई खदानों पर निवेश बढ़ाने की योजना बनाई है।
भारत: भारत, जिसके पास 6% वैश्विक दुर्लभ खनिज भंडार हैं, इस संकट को अवसर के रूप में देख रहा है। सरकार खनन और प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ाने पर विचार कर रही है।
ऑस्ट्रेलिया: लिनास कॉर्पोरेशन जैसी कंपनियां अमेरिका के साथ साझेदारी बढ़ा रही हैं, लेकिन उनकी क्षमता अभी सीमित है।
चीन का यह कदम केवल आर्थिक नहीं, बल्कि जियो-पॉलिटिक्स भी है। विशेषज्ञों का मानना है कि बीजिंग अमेरिका को यह संदेश देना चाहता है कि वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी बादशाहत का इस्तेमाल हथियार के रूप में कर सकता है। 2010 में जापान के खिलाफ और हाल के वर्षों में गैलियम और जर्मेनियम पर पाबंदी लगाकर चीन ने अपनी इस रणनीति का प्रदर्शन किया है।
अमेरिका के पास विकल्प?
अमेरिका ने घरेलू खनन और रीसाइक्लिंग पर निवेश शुरू किया है। उदाहरण के लिए, पेंटागन ने एमपी मटेरियल्स को $439 मिलियन का फंड दिया है। इसके अलावा, यूक्रेन और ग्रीनलैंड जैसे क्षेत्रों में खनिज भंडारों तक पहुंच की कोशिशें चल रही हैं, लेकिन इनके व्यावसायिक उत्पादन में समय लगेगा। विशेषज्ञों का सुझाव है कि अमेरिका को भारत, ऑस्ट्रेलिया और वियतनाम जैसे देशों के साथ गठजोड़ बढ़ाना चाहिए, जिनके पास दुर्लभ खनिजों के भंडार हैं।