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क्या है हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के जजों को हटाने की महाभियोग प्रक्रिया

उच्चतम न्यायालय ने 1991 में के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ के मामले में मत दिया है कि उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत लोक सेवक की श्रेणी में आते हैं। अत: उनके ऊपर मुकदमा दर्ज किया जा सकता है लेकिन उच्चतम न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी कि किसी भी उच्चतम या उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ मुकदमा तहत दर्ज करने के पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेनी आवश्यक होगी।

जयपुरApr 02, 2025 / 01:30 pm

Neeru Yadav

पिछले कुछ दिनों से दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश चर्चा में हैं। इसका कारण कथित रूप से न्यायाधीश के आवास से कुछ जले हुए नोटों का बरामद होना है। इस संदर्भ में जानने का प्रयास करेंगे कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था का स्वरूप क्या है और इसमें न्यायपालिका को कितनी स्वतंत्रता प्राप्त है। इन स्वतंत्रताओं के अधीन हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के ऊपर क्या कोई ‘मुकदमा’ दर्ज किया जा सकता है? यदि दर्ज किया जा सकता है तो उसकी प्रक्रिया क्या है? कोई न्यायाधीश किसी अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसे किस रीति से हटाया जा सकता है?
भारत का संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था का प्रावधान करता है और यह व्यवस्था भारत शासन अधिनियम,1935 से ग्रहण की गई है। इस न्यायिक व्यवस्था के शीर्ष पर उच्चतम न्यायालय है और इसके अधीन प्रत्येक राज्य का उच्च न्यायालय और जिला-अधीनस्थ न्यायालय हैं। संविधान के भाग 5 में अनुच्छेद 124 से लेकर 147 के बीच उच्चतम न्यायालय; भाग 6 में अनुच्छेद 214 से लेकर 231 के बीच उच्च न्यायालय के बारे में प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 233 से लेकर 237 के बीच जिला एवं अधीनस्थ न्यायालय के बारे में प्रावधान है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति
अनुच्छेद 217 के अनुसार किसी भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श करके की जाती है। उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाता है। यदि दो या दो से अधिक राज्यों के लिए साझा उच्च न्यायालय हो तो ऐसी नियुक्ति में राष्ट्रपति सभी संबंधित राज्यों के राज्यपालों से भी परामर्श करते हैं। न्यायाधीशों के दूसरे वाद (1993) में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि राष्ट्रपति द्वारा तब तक उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं की जा सकती है जब तक कि वह भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के अनुरूप न हो। न्यायाधीशों के तीसरे वाद (1998) में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति एक ‘कॉलेजियम’ के परामर्श से करेंगे जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होंगे। इस प्रकार भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अकेले राष्ट्रपति को दिया गया परामर्श राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं है अर्थात राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।
क्या उच्चतम और उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जा सकता है?
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने 1991 में के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ के मामले में मत दिया है कि उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अन्तर्गत लोक सेवक की श्रेणी में आते हैं। अत: उनके ऊपर मुकदमा दर्ज किया जा सकता है लेकिन उच्चतम न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी कि किसी भी उच्चतम या उच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ मुकदमा तहत दर्ज करने के पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेनी आवश्यक होगी। यदि राष्ट्रपति से भी अनुमति ली जाती है तो राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सहमति के बिना मुकदमा दर्ज करने की अनुमति नहीं देगा। इस निर्णय का उद्देश्य है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखा जाए।
आंतरिक समिति का हुआ है गठन
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के आवास पर कथित तौर पर जले नोटों के बरामद होने के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने एक आंतरिक जांच समिति बनाई है जिसमें पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शील नागू , हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जीएस संधावालिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अनु शिवरामन को शामिल किया गया हैं। यह जांच समिति फिलहाल मामले की जांच कर रही है। यदि इस मामले में न्यायाधीश दोषी पाए जाते हैं तो आगे की कार्रवाई की जाएगी।
आगे क्या हो सकता है
यदि आंतरिक जांच समिति न्यायाधीश को दोषी पाती है तो उनके खिलाफ भारत के मुख्य न्यायाधीश एफआइआर दर्ज करने की अनुमति दे सकते हैं या उनको हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया भी प्रारंभ की जा सकती है।
क्या होती है महाभियोग की प्रक्रिया
संविधान के अनुच्छेद 124 (4) में उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 217(1)(बी) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया का उल्लेख है। संविधान में हटाने की प्रक्रिया के बारे में व्यापक प्रावधान नहीं किया गया है। संविधान में केवल इतना कहा गया है कि उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को राष्ट्रपति द्वारा साबित कदाचार या अक्षमता के आधार पर तभी हटाया जा सकता है, जब संसद उन्हें हटाने का प्रस्ताव पारित कर दे। यह प्रस्ताव ‘विशेष बहुमत’ से अर्थात संसद के प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित होना चाहिए। ध्यातव्य है कि उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के हटाने की प्रक्रिया समान है। लेकिन इसके बारे में व्यापक प्रावधान संविधान में नहीं किया गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए है ‘न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 बनाया गया है जिसमें न्यायाधीशों के हटाने की प्रक्रिया के बारे में विशेष रूप से उल्लेख है।
न्यायाधीश जांच अधिनियम ,1968 के अनुसार संसद के किसी भी सदन में उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव लाया जा सकता है। यदि यह प्रस्ताव लोकसभा में लाया जाता है तो कम से कम 100 सदस्य और राज्यसभा में लाया जाता तो कम से कम 50 सदस्य इसका लिखित प्रस्ताव संबंधित सदन के पीठासीन अधिकारी अर्थात लोकसभा की स्थिति में लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा की स्थिति में राज्यसभा के सभापति को देंगे। पीठासीन अधिकारी को यह अधिकार होता है कि वह ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार करे या अस्वीकार कर दे। अगर वह हटाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं तो वह एक 3 सदस्यीय एक जांच समिति का गठन करेंगे, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या किसी एक अन्य न्यायाधीश, किसी भी एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक प्रसिद्ध न्यायविद को शामिल किया जाता है। यदि यह तीन सदस्यीय जांच समिति किसी न्यायाधीश को कदाचार या अक्षमता का दोषी पाती है तो उसके खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है और संसद का प्रत्येक सदन विशेष बहुमत से हटाने का प्रस्ताव पारित कर देता है तो इसके पश्चात् इसे अनुमति के लिए राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। इस प्रस्ताव पर यदि राष्ट्रपति अनुमति प्रदान कर दे तो उस तिथि से वह पद रिक्त मान लिया जाएगा। अभी तक हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश को इस रीति से हटाया नहीं गया है।
किन न्यायाधीशों के खिलाफ अभी तक महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई
मार्च, 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया था लेकिन इसे राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी/सभापति ने अस्वीकार कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के एकमात्र न्यायाधीश वी. रामास्वामी हैं, जिनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया प्रारंभ की गई थी लेकिन 1993 में प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई थी और लोकसभा में यह प्रस्ताव गिर गया था। उनके ऊपर 1990 में पंजाब और हरियाणा न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में रहते हुए अपने कार्यकाल के दौरान आधिकारिक आवास में दिखावटी खर्च करने का आरोप लगाया गया था।
2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन पर भी महाभियोग का प्रस्ताव राज्यसभा में लाया गया था। इस प्रस्ताव के राज्यसभा में पारित होने के बाद इसके पहले कि इसे लोकसभा में लाया जाता, उन्होंने अपने पद से एक सितंबर, 2011 को त्यागपत्र दे दिया था।
जस्टिस पी.डी. दिनकरन, जो कि कर्नाटक हाईकोर्ट के न्यायाधीश थे , के खिलाफ भी महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया था। यह प्रस्ताव भी जुलाई, 2011 में उनके त्यागपत्र देने के कारण अपनी परिणति तक नहीं पहुंच पाया। उनके ऊपर अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर जमीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे आरोप लगे थे। इस मामले में राज्यसभा के सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिए कार्रवाई की याचिका दी थी।
2015 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एस.के. गंगले के खिलाफ राज्यसभा के सदस्यों ने महाभियोग का प्रस्ताव लाने का नोटिस सभापति को दिया था। उन पर साल 2015 में एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीडऩ के आरोप लगे थे। जस्टिस गंगले ने इस्तीफा देने के बजाय जांच का सामना करना उचित समझा। दो साल तक चली जांच में उनके ऊपर आरोप साबित नहीं हुए और इसके बाद प्रस्ताव सदन में पेश नहीं किया गया था।
आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना हाईकोर्ट के जस्टिस सी. वी. नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ भी हटाने की प्रक्रिया के लिए राज्यसभा में प्रतिवेदन 2016 में दिया गया था लेकिन 9 प्रस्तावकों के प्रस्ताव वापस लेने के कारण यह प्रक्रिया भी विफल रही।
गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे.बी. पारदीवाला के खिलाफ भी महाभियोग के लिए राज्यसभा में प्रतिवेदन दिया गया था। जस्टिस पारदीवाला के 18 दिसम्बर, 2015 के फैसले में आरक्षण के विरोध में की गई टिप्पणियों को लेकर उनके खिलाफ प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन मामले का तूल पकड़ते ही पारदीवाला ने इसे अपनी टिप्पणी में से हटा दिया।
ध्यान देने देने योग्य यह भी है कि हाईकोर्ट के एकमात्र जस्टिस कर्णन हैं, जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने अवमानना के मामले में 6 महीने की सजा 2017 में सुनाई थी। उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश सहित सात जजों को अपने रेजिडेंशियल कोर्ट में पेश होने का आदेश दिया था।
उपरोक्त प्रावधान करने का उद्देश्य है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे तथा दूसरी तरफ दुर्भावनावश कोई व्यक्ति या संस्था न्यायपालिका की गरिमा को ठेस भी न पहुंचा पाए।

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