रिश्तों की तह में छुपा दर्द: विवाहेतर संबंधों की जटिलता और परिणाम
डॉ. शिवम भारद्वाज
असिस्टेंट प्रोफेसर, जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा


समाज में प्रेम के बदलते स्वरूप और उससे उपजी चुनौतियां प्रेम — एक ऐसा शब्द जो सुनने में सरल लगता है, लेकिन जब जीवन में अपनी सीमाओं से बाहर निकलता है, तो सबसे अधिक जटिल और खतरनाक रूप धारण कर लेता है। खासकर तब, जब यह विवाह की सामाजिक और नैतिक चौहद्दियों को लांघता है। विवाहेतर संबंध कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन हालिया वर्षों में इनसे उपजे अपराध, हिंसा और आत्महत्याओं की कड़ियां केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं हैं। यह उस सामाजिक ढांचे में फैलती दरारों की स्पष्ट गवाही हैं, जिन्हें वर्षों से नैतिकता के पर्दे से ढँकने की कोशिश की गयी है।
अब प्रेम केवल भावना नहीं रहा — यह स्वामित्व, अपेक्षा, अधिकार और असहमति के बीच फंसी एक विस्फोटक रासायनिक प्रक्रिया बन चुका है। जब रिश्तों में पारदर्शिता और संवाद की जगह संदेह और आत्मीयता की जगह अधिकार खड़ा हो जाता है, तो वह रिश्ता एक प्रयोगशाला बन जाता है — जहाँ ज़रा सी चूक भी विस्फोटक परिणाम ला सकती है। और यह विस्फोट अब निजी नहीं रहता, वह सार्वजनिक भी होता है, और अक्सर जानलेवा भी।
विवाहेतर संबंधों से उपजी हालिया हत्याएँ, आत्महत्याएँ और प्रतिशोध की घटनाएं एक पैटर्न पर आधारित दिखती हैं: पारदर्शिता और संवाद का अभाव, भावनात्मक असंतुलन, विश्वास का ह्रास, और वह अपमान — जो किसी एक पक्ष के लिए असहनीय हो जाता है। ये घटनाएँ उस सड़न को उजागर करती हैं जिसे ‘निजी मामला’ कहकर टाला या छुपाया जाता रहा है। आज रिश्ते केवल अपराध के कारण नहीं, खुद अपराध बन चुके हैं।
अब अपराध लिंग-निर्भर नहीं हैं। न केवल पुरुष दोषी हैं, न महिलाएँ केवल पीड़िता। कुछ घटनाओं में पुरुष अपने जीवनसाथी और उसके सहयोगियों के षड्यंत्र का शिकार बने, तो कई मामलों में महिलाएँ उन संबंधों की बलि चढ़ीं, जिनमें प्रेम दरअसल छल, वासना और नियंत्रण का दूसरा नाम था। यह किसी एक वर्ग की नैतिक विफलता नहीं — यह उस समाज की गिरावट है, जो रिश्तों को निभाने, छिपाने और खींचते रहने में गर्व महसूस करता है, लेकिन संवाद, स्पष्टता और फैसले लेने की संस्कृति से कतराता है।
डिजिटल माध्यमों ने इन संबंधों को और भयावह बना दिया है। अब प्रेम स्मृति नहीं, स्क्रीनशॉट्स, चैट्स, रिकॉर्डिंग और वीडियो की शक्ल में संग्रहीत है — जो भावनात्मक दस्तावेज़ नहीं, बदले के हथियार बन जाते हैं। जब कोई रिश्ता टूटता है, तो उसका मलबा अब मन में नहीं, इंटरनेट पर बिखरता है। और यह आभासी हिंसा, असल हिंसा से कहीं अधिक गहरी चोट दे जाती है।
विवाहेतर संबंधों का अस्तित्व किसी इनकार से नहीं मिटता। लेकिन यह मान लेना कि हर ऐसा रिश्ता केवल ‘भावनात्मक खालीपन’ की भरपाई है — यह भी एक सुविधाजनक झूठ है। असंतोष का अर्थ यह नहीं कि कोई तीसरा व्यक्ति उस बंधन को तोड़ने का नैतिक अधिकार ले आए। तब ‘प्रेम’ सिर्फ बहाना बनता है — और उसके नीचे पलती है अव्यवस्था, लालच और खुदगर्ज़ी। यही असंतुलन अपराध की ओर ले जाता है। और जब ये अपराध होते हैं, तो कीमत एक व्यक्ति, एक परिवार, और कई बार पूरे सामाजिक संतुलन को चुकानी पड़ती है।
विवाह अब स्थायित्व की गारंटी नहीं, बल्कि संदेह, असुरक्षा और अव्यक्त टकरावों का मैदान बन चुका है। जब इसमें तीसरे की मौजूदगी जुड़ती है — भावनात्मक हो या शारीरिक — तो यह एक खतरनाक त्रिकोण बन जाता है, जिसमें अंततः सब कुछ टूटता है: भरोसा, संबंध, और कभी-कभी — जीवन भी। हर टूटा रिश्ता हत्या नहीं होता, लेकिन जब वह प्रतिशोध का रास्ता बन जाए, तो उसमें केवल दो लोग नहीं पिसते — भरोसा, परिवार और समाज की नींव दरक जाती है।
ये घटनाएँ केवल पुलिस केस नहीं हैं। ये उस भीतर गहराई से उठी चीखें हैं, जहाँ कोई खुद को खत्म करने के सिवा कुछ और नहीं सोच पाता। यह उस समाज की पराजय है, जो किसी व्यक्ति को टूटने से पहले बोलने की इजाज़त तक नहीं देता। जहाँ संवाद को दुर्बलता और पारदर्शिता को असहजता माना जाता है। असली हार वहीं है — जहाँ ऐसे हादसों को या तो नैतिकता की चादर से ढँक दिया जाता है, या सनसनी बनाकर बेच दिया जाता है। लेकिन हर बार नतीजा एक-सा रहता है — एक और शव, एक और वायरल वीडियो, एक और घर, जो एक झटके में ढह गया।
जब तक रिश्तों में स्पष्टता, जवाबदेही और एकरेखीय प्रतिबद्धता नहीं होगी — स्थिति बिगड़ती ही रहेगी, क्योंकि कोई भी रिश्ता तभी टिकता है, जब वह बोझ न बने। और बोझ वहीं बनता है, जहाँ संवाद थम जाता है।
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