शहर के कई समाजों और मोहल्लों में होलिका दहन के बाद से ही गणगौर का पूजन शुरू हो जाता है। 16 दिवसीय आयोजन के तहत दोपहर बाद से ही विभिन्न मोहल्लों में बच्चियों की चहल-पहल शुरू हो जाती है। बच्चियां एकत्रित होकर आसपास के बाग-बगिचों से सेवरा लाती है। होलिका दहन के स्थान, शिव मंदिरों आदि में गीत गाते हुए पूजा-अर्चना करती है। यह दौर गणगौर तक नियमित रूप से जारी रहता है।
छोटा भाेईवाड़ा निवासी आशा माली ने बताया कि 5 साल से 13 साल की बच्चियां नियमित रूप से सेवरा लाती है और लोक गीत गाते हुए होलिका दहन वाले स्थान और शिवजी के मंदिर में गणगौर की पूजा करती है। ये लड़कियां अपने से बड़ी लड़कियों या परिवार की महिलाओं से पूजन प्रक्रिया, गीत आदि सीखती है। यह परंपरा लगातार एक से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हो रही है। शीतला सप्तमी पर छोटी गणगौर के मेले से मिट्टी से बनी ईसर, पार्वती और कानूड़ा की प्रतिमाएं लाई जाती है। उनकी भी नियमित रूप से पूजा होती है।
हाथीपोल निवासी तरुणा पूर्बिया ने बताया कि होली के तीसरे दिन से गणगौर की पूजा शुरू होती है। इस दिन शुभ मुहूर्त में सुहागिन महिलाएं और कुंवारी लड़कियां अच्छे से तैयार होकर होली की राख में दूध मिलाकर 16 पिंड तैयार करती है। उनकी विधि पूर्वक पूजा कर मंदिर में स्थापित करती है। पिंड स्थापित करने के साथ ही पूजा शुरू हो जाती है, जो 16 दिन तक लगातार चलती है। कुंवारी लड़कियां बाग-बगीचों में जाकर फूलों का सेवरा सजा कर गीत गाते हुए लाती है और पिंड की पूजा करती है। इस दौरान ईसर-पार्वती, कानूड़ा की प्रतिमाओं की भी पूजा होती है और उन्हें नित्य भोग धराया जाता है।
दूज से शुरू होगा पांच दिवसीय पर्व
दातण हेला यानी चैत्र मास की बीज के दिन रात्रि जागरण होता है। शाम को महिलाएं और कुंवारी लड़कियां सिर पर फूलों का सेवरा सजाकर लाती है। विधि-विधान से पूजन करने के साथ ही लड़की की गणगौर जिनमें ईसर, पार्वती होते हैं उनको तैयार किया जाता है। रात को भजन-कीर्तन होता है। महिलाएं घूमर नृत्य करती है। भगवान को मीठे गुलगुले और बेसन की भांग वाली पकोड़ी का भोग धराया जाता है। इसरजी को भांग वाले जल से आम्रपाली से जल आचमन कराया जाता है। सुबह तीज के दिन महिलाएं नहा धोकर अच्छे से सज धज कर 16 श्रृंगार करके गणगौर की पूजा करती है। कुंवारी लड़कियां अच्छे वर के लिए और सुहागिन महिलाएं अपने सुहाग की मंगल कामनाएं करती है।