शादियों में सिर पर उठाता था लाइट
रामसेवक शादी समारोह में सिर पर लाइट उठाता था, जिससे उसे 250 से 300 रुपए मिल जाते थे। जब शादियों का सीजन नहीं होता तो रामसेवक इधर-उधर मजदूरी करके काम चलाता था। मजदूरी वगैरह से जो पैसे मिलते उसे पहले वह घर पर देता, जिससे कि घर की अजीविका चलाने में मदद हो सके। उसके बाद वह कुछ पैसों से अपनी कापी किताब खरीदता। रामसेवक फीस भी खुद ही भरता था।
गांव में रहते हैं 250 से 300 लोग
निजामपुर गांव बाराबंकी जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर है। गांव तक पक्की सड़क आती है। यह गांव अहमदपुर ग्राम पंचायत का एक मजरा है। यहां की शिक्षा व्यवस्था आजादी के बाद से अबतक बिल्कुल भी नहीं सुधर पाई। गांव में जो भी परिवार रहते हैं उन सभी का काम मजदूरी ही है। रोजगार के लिए कुछ युवक बाहर भी रहते हैं और मजदूरी करते हैं।
78 साल और गांव में एक भी बच्चा पास नहीं कर सका हाईस्कूल
देश को आजादी मिले 78 साल हो गए, लेकिन अब तक यहां एक भी बच्चा हाईस्कूल पास नहीं कर सका। गांव में ही एक प्राइमरी स्कूल है, वहां पांचवी तक की पढ़ाई होती है। लेकिन अधिकतर बच्चे बड़े होते ही मजदूरी की ओर रूख करने लगते हैं। वह स्कूल की ओर बहुत कम ही देखते हैं।
रामसेवक पढ़ता तो गांव के लोग हंसते
रामसेवक जब घर के बाहर लगी स्ट्रीट लाइट में पढ़ता तो लोग उसे देखकर कहते कि ये हाईस्कूल पास करने चले हैं। अब तक कोई पास नहीं कर पाया ये कर लेंगे। रामसेवक कहता है कि मैं गांव वालों के तानों से बिल्कुल परेशान नहीं हुआ और मुझे जब भी टाइम मिलता मैं अपनी पढ़ाई जारी रखता। राम सेवक ने कहा कि मेरी मेहनत के बदौलत ही मुझे 55% मार्क मिले हैं।
डीएम ने मिलने बुलाया
गांव में पहली बार 10वीं की परीक्षा पास करने पर रामसेवक को बाराबंकी डीएम शशांक त्रिपाठी ने मिलने के लिए बुलाया। डीएम से मिलने जाने के लिए रामसेवक के पास न तो कपड़े थे और न ही जूते। इस दौरान रामसेवक के शिक्षकों ने उसे जूते और कपड़े दिलाए। रामसेवक ने डीएम से मिलने पहले कभी जूते नहीं पहने थे। पैर की उंगलियां फैली होने के कारण बहुत ही मुश्किल से रामसेवक के जूते आए। डीएम ने रामसेवक की आगे की क्लास 11 और 12 की फीस माफ कर दी।