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शोले फिल्म के 50 साल बाद भी गूंज रहा ‘कितने आदमी थे?’

कस्बे में डाकू के वेश में घूमते दो कलाकारों के अभिनय ने मानों फिल्म के उसी पुराने सीन को जीवंत कर दिया हो। कस्बे में बहुरुपिए कलाकार नित नए स्वांग बनाकर इन दिनों अपनी कला का जलवा बिखेर रहे हैं।

बारांJan 31, 2025 / 11:47 am

mukesh gour

कस्बे में डाकू के वेश में घूमते दो कलाकारों के अभिनय ने मानों फिल्म के उसी पुराने सीन को जीवंत कर दिया हो। कस्बे में बहुरुपिए कलाकार नित नए स्वांग बनाकर इन दिनों अपनी कला का जलवा बिखेर रहे हैं।

कस्बे में डाकू के वेश में घूमते दो कलाकारों के अभिनय ने मानों फिल्म के उसी पुराने सीन को जीवंत कर दिया हो। कस्बे में बहुरुपिए कलाकार नित नए स्वांग बनाकर इन दिनों अपनी कला का जलवा बिखेर रहे हैं।

लुप्त होती कला को चार पीढ़ी से जिंदा रखने की कोशिश कर रहे बहुरूपिये

प्रमोद जैन @ हरनावदाशाहजी. कितने आदमी थे ..? भले ही नई पीढ़ी इस डायलॉग से अनजान हों, लेकिन बरसों पुरानी सुपरहिट फिल्म शोले का यह डायलॉग आज भी लोगों की जेहन पर आ ही जाता है। इन्हीं डायलॉग के स्वरों के साथ गुरुवार को कस्बे में डाकू के वेश में घूमते दो कलाकारों के अभिनय ने मानों फिल्म के उसी पुराने सीन को जीवंत कर दिया हो। कस्बे में बहुरुपिए कलाकार नित नए स्वांग बनाकर इन दिनों अपनी कला का जलवा बिखेर रहे हैं।

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बरसों से नियमित आते हैं

आधुनिक तकनीकी भरी चकाचौंध के युग में लुप्त होती बहुरूपिया कला को जीवित रखने का काम राजस्थान के खाटूश्याम क्षेत्र निवासी 62 वर्षीय बहुरुपिया मनोज राज का परिवार कर रहा है। पिछले 40 वर्षों से कस्बे में नियमित आकर अपनी कलाकारी के रंग दिखाते हुए उनके इस कार्य में अब बेटे राहुल राज, कुनाल राज भी कलाकारी के स्वांग बनाकर पेश कर रहे हैं।
डाकू का स्वांग बनाया

कस्बे में गुरुवार को कलाकारों ने मेरा गांव मेरा देश चंबल का डाकू गब्बर ङ्क्षसह का सीन बताकर लोगों का दिल जीत लिया। ये स्वांग कस्बेवासियों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं।
नई पीढ़ी भी इसके लिए हो रही तैयार

बहुरूपिया राहुल राज व कुनाल राज ने बताया कि हमारे परिवार की चार पीढ़ी बहुरूपिया कला में पहचान बना रही है। यह कला ही इनकी आजीविका का मुख्य साधन है। देखा जाए तो इस समाज के लोगों ने अपनी कला की प्रसिद्धि न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी फैलाई है। बहरूपिया समाज के बड़े ही नहीं छोटे बच्चे भी बहुरूप धरने के बाद लोगों को दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर करते हैं। ये अपना रूप चरित्र के अनुसार बदल लेते हैं और उसी के अनुरूप अभिनय करने में पारंगत होते हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी कला को देखकर लोग लोटपोट तक हो जाते हैं।
यह हैं प्रमुख आकर्षण

इनके स्वांगों में काली माता, हनुमान, श्रीकृष्ण, गणेश, नारदजी, पागल स्वांग, चोर-सिपाही, डाकू, देवर-भाभी आदि प्रमुख आकर्षण रहते हैं। लेकिन बदलते परिवेश में उपेक्षा का दंश व संरक्षण के अभाव मे धीरे-धीरे यह कला लुप्त होने के कगार पर है। बहुरूपिया कला को आज के समय संरक्षण व प्रोत्साहन की दरकार है। बहुरूपिया कला के पारंगत लोगों का कहना है कि यदि उनकी कला को प्रोत्साहन मिले तो उनके बीते हुए दिन वापस लौट सकते हैं।

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