विश्वविद्यालय की यह चूक करीब 4500 विद्यार्थियों को प्रभावित कर गई है, जो कुल विद्यार्थियों का लगभग 20 प्रतिशत है। अब विश्वविद्यालय ने अपनी गलती तो स्वीकार कर ली है लेकिन विद्यार्थियों को अब रिवैल्यूएशन का सहारा लेना पड़ेगा।
परीक्षा नियंत्रक डॉ. फरवट सिंह ने बताया कि यह गड़बड़ी नई शिक्षा नीति के नियमों को ठीक से न समझ पाने के कारण हुई। पुराने नियमों के अनुसार विद्यार्थियों को पास होने के लिए कुल 36 प्रतिशत अंक पर्याप्त होते थे, लेकिन नई नीति के तहत अब प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) और सैद्धांतिक (थ्योरी) परीक्षा में अलग-अलग न्यूनतम 40-40 प्रतिशत अंक अनिवार्य कर दिए गए हैं।
इंटरनल मार्क्स की व्यवस्था भी शुरू की गई है, लेकिन इन्हें केवल तभी जोड़ा जाएगा जब विद्यार्थी प्रायोगिक व थ्योरी दोनों में न्यूनतम 40 प्रतिशत अंक हासिल कर लें। डॉ. फरवट सिंह के अनुसार, जब गलती का एहसास हुआ तो विश्वविद्यालय ने परिणामों को फिर से संशोधित किया और एनईपी के मुताबिक दोबारा मूल्यांकन कर परिणाम जारी किए। इसके चलते ही कई छात्र फेल हुए या उन्हें बैक दिया गया।
20 प्रतिशत विद्यार्थियों का परिणाम प्रभावित
विश्वविद्यालय के अनुसार, कुल प्रथम वर्ष के छात्रों में से करीब 20 प्रतिशत (लगभग 4500 छात्र) इस परिणाम संशोधन से प्रभावित हुए हैं। ये वे छात्र हैं जिनके थ्योरी या प्रैक्टिकल में किसी एक में 40 प्रतिशत से कम अंक थे, लेकिन पुराने तरीके से उन्हें पास दिखा दिया गया था। छात्रों का कहना है कि यह केवल नीति की गफलत नहीं बल्कि प्रशासनिक लापरवाही है। किसी भी नई व्यवस्था को लागू करने से पहले पूरी समझ और साफ दिशा-निर्देश जरूरी होते हैं, जो विश्वविद्यालय में साफ तौर पर नहीं थे।