भारत की आध्यात्मिक संस्कृति को गतिमान करने में संतों-महात्माओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस क्रम में मध्यकाल में गढ़ गागरौन के प्रतापी शासक राव प्रताप सिंह का नाम उल्लेखनीय है। जिन्होंने राजा रहते हुए न केवल तत्कालीन सुल्तानों से लोहा लिया, अपितु कालांतर में आध्यात्म की राह पर अग्रसर होकर संत पीपाजी के नाम से धर्म और संस्कृति की ध्वजा को चहुंदिशा फैलाया। संत रामानंद के बारह शिष्यों में कबीर, धन्ना, रैदास आदि के साथ संत पीपा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता हैं। संत पीपा ने आत्मिक और आध्यात्मिक जागृति के साथ समाज में व्याप्त कुरीतियों और हिंसा आदि का पुरजोर विरोध किया। समाज और संस्कृति के प्रति उनका योगदान इतिहास की थाती है। उन्होंने राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों के भ्रमण में सांस्कृतिक चेतना और आध्यात्मिक उत्थान के कार्य किए। पर्दा प्रथा, हिंसा आदि का विरोध और स्वावलम्बन, आंतरिक स्वतंत्रता आदि के माध्यम से उन्होंने सुसुप्त चेतना को पुनर्जीवित करने का कार्य किया। उनका भक्ति साहित्य आज भी लोकगायन में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनकी वाणियों को गुरु ग्रन्थ साहिब में स्थान मिलना यह प्रमाणित करता है कि समाज और संस्कृति के उन्नयन में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है ।