लेकिन देश को आजादी के कुछ समय बाद ही आज से पचास वर्ष पूर्व इस खतरनाक स्थिति का सामना करना पड़ा। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी। यद्यपि 1971 में हीं बांग्लादेश युद्ध में भारत को ऐतिहासिक जीत मिली।
लेकिन इसके बाद शनैः शनैः गांधी के कार्य एवं व्यवहार में भ्रष्टाचार एवं चाटुकारिता के गुण दिखाई देने लगें। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खराब शासन भ्रष्टाचार और आर्थिक मंदी के कारण जनता में अलोकप्रिय हो गई थी। देश की जनता का मूड पूरी तरह बदल चुका था तथा बहुत कम लोग इंदिरा गांधी के पक्ष में खड़े थे। इन परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने ही इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री के पद से हटाने के लिए सक्रिय रूप से साजिश रचनी शुरू कर दी। निजलिंगप्पा ने अपनी डायरी में लिखाः ‘मुझे यकीन नहीं है कि वह(श्रीमती गांधी) प्रधानमंत्री के रूप में बने रहने की हकदार हैं। संभवतः जल्द ही कोई टकराव हो सकता है। और आगे उन्होंने लिखा कि देसाई ने प्रधानमंत्री को हटाए जाने की आवश्यकता पर चर्चा की।’
वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के सामने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लड़े राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर सरकारी मदद से चुनाव जीतने का आरोप लगाकर हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा की पीठ में भारतीय जनसंघ के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, सत्य प्रकाश मालवीय, पीएमओ में कार्यरत टीएन शेषन, यशपाल कपूर सहित 50 से अधिक लोगों की गवाही उपरांत दिनांक 12 जून, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को गैर-कानूनी ठहराते हुए रायबरेली से उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी और 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
इसी समय दल विहीन लोकतंत्र के प्रवर्तक जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में भारत में आर्थिक राजनीतिक एवं लोकतांत्रिक सुधारों के लिए युवा-शक्ति आंदोलनरत थी। आंदोलन की शुरूआत बिहार में हुई शीघ्र ही यह गुजरात नवनिर्माण आंदोलन से शुरू होकर बिहार छात्र संघर्ष आंदोलन के साथ पूरे देश में जन आंदोलन के रूप में विकसित हो गया और जन आंदोलन ने एक राष्ट्रीय अपील पैदा की।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर श्रीमती इंदिरा के त्याग पत्र की मांग को लेकर विपक्षी दलों ने मिलकर 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सभा का आयोजन रखा। जयप्रकाश नारायण ने अपने भाषण की शुरूआत रामधारी सिंह दिनकर की निम्न पंक्तियों के साथ की- “दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”
सभा में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा सरकार को अवैध बताते हुए उनके इस्तीफे की मांग की तथा सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों को आदेश नहीं मानने का कहा। दिल्ली और अन्य स्थानों पर उनके तत्काल इस्तीफे की मांग करते हुए सार्वजनिक रैलिया हुई।
संजय गांधी विरोधियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही के पक्ष में थे। 25 जून की रात को 11.45 बजे तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक आपातकाल वाले अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवायें और अगली सुबह 6 बजे मंत्रिमण्डल की आपात बैठक में आपातकाल का अनुमोदन करवाया गया। श्रीमती इंदिरा गांधी ने सुबह रेडियो संदेश दिया, ‘‘भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की हैं इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है।’’ इस प्रकार 25/26 जून, 1975 की मध्य रात्रि से देश में आपातकाल लागू कर दिया गया। भारत के लिए आजादी की रात जितनी छोटी थी, आपातकाल घोषणा की रात उतनी ही लम्बी साबित हुई। इंदिरा गांधी लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में घोषणा कर सकती थी कि लोकसभा भंग कर दी जायेगी और शीघ्र ही नये चुनाव करवाये जायेंगे लेकिन इंदिरा गांधी के सभी दावों के बावजूद, यह स्पष्ट तथ्य था कि यह उनकी अपनी कुर्सी बचाने के लिए किया गया था। इस घोषणा ने संविधान के संघीय प्रावधानों, मौलिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं को निलंबित कर दिया।
इसके बाद भारतीय लोकतंत्र को नष्ट एवं कमजोर करने तथा भारत को जेल में बदलने के चौंकाने वाले व्यवस्थित एवं बेशर्म प्रयास किये गये। जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, जार्ड फर्नाडिस, अरूण जेटली जैसे बड़े नेता लोगों को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम(MISA) के तहत हिरासत में ले लिया गया। कई शिक्षाविदों अखबार वालों, ट्रेड यूनियन वादियों और छात्र नेताओं को भी सलाखों के पीछे डाल दिया गया। आपातकाल के उन काले दिनों में लगभग 35 हजार व्यक्तियों को मीसा के तहत हिरासत में लिया गया और 75 हजार से अधिक लोगों को कुख्यात भारत रक्षा अधिनियम (डी.आई.आर.) के तहत हिरासत में लिया गया। इसी के साथ लाखों लोगों को विभिन्न कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया जिनमें 9 वर्ष से लेकर 90 वर्ष से अधिक आयु के लोग शामिल थे। भारतीय जनसंघ और राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थकों ने असाधारण साहस और दृढ़ता का परिचय दिया तथा लोकतंत्र सेनानियों ने जेल में सत्याग्रह कर आपातकाल का विरोध किया।
प्रेस सेंसरशिप के कारण स्वतंत्र पत्रकारिता भी प्रभावित हुई। जहां अखबार छपते थे वहां बिजली आपूर्ति बाधित की गई। कुलदीप नैयर जैसे पत्रकारों को भी मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। आडवाणी ने पत्रकारिता के लिए टिपप्णी की थी ‘‘अगर उन्हें झुकने के लिए कहां जाता है तो वह रेंगने के लिए तैयार रहते हैं।’’ किसी भी खबर व समाचार को लिखने के लिए सेंसरशिप की कैंची जरूरी थी। इंडियन एक्सप्रेस एवं जनसत्ता जैसे अखबारों ने विरोध स्वरूप खाली पन्ने छापे।
आपातकाल के दौरान श्रीमती गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी जो कि सरकार या कांग्रेस में कोई भी पद नहीं रखते थे फिर भी एक समानान्तर सत्ता के रूप में उभरे, जो सरकार और प्रशासन के कामकाज में अपनी मर्जी से हस्तक्षेप करते थे। कैबिनेट मंत्रियों, कांग्रेस नेताओं, मुख्यमंत्रियों और वरिष्ठ सिविल सेवकों ने उनका स्वागत किया एवं उनकी बात मानी और युवा कांग्रेस नेता के रूप में संजय गांधी ने मूल पार्टी को टक्कर देना शुरू कर दिया।
संजय गांधी झुग्गी-झोपड़ियों, सड़कों, बाजारों, पार्कों, स्मारकों आदि में बाधा डालने वाले अनाधिकृत संरचनाओं को हटाकर शहरों को सुन्दर बनाने के लिए दृढ़संकल्पित थे। यह कार्य प्रोत्साहन एवं आग्रह की बजाय जबरदस्ती एवं दबाव पूर्वक किया गया था। यह कार्य दिल्ली एवं आस-पास के शहरों में मुख्य रूप से हुआ। तुर्कमान गेट विध्वंस जैसी त्रासदी नई दिल्ली में घटित हुई। तुर्कमान गेट के सौंदर्यीकरण के नाम पर एक सशस्त्र सरकारी मशीनरी बुलडोजर एवं भारी पुलिस जाप्ते के साथ वहाँ पहुंची तो स्थानीय निवासियों ने इसका विरोध किया तो उन पर गोलियां चलाई गई जिसके फलस्वरूप असंख्य मौंते हुई और अनेक लोग घायल हुए। जिसके सटीक आँकड़े सरकार द्वारा जारी नहीं किये गये। सैंसरशिप के कारण मीडिया भी इसकी रिपोर्ट नहीं कर सका।
इसी तरह संजय गांधी के इशारे पर जबरन नसबंदी अभियान आक्रामक रूप से चलाया गया। संजय गांधी की देखरेख में 8 मिलियन से अधिक नसबंदी शिविरों का संचालन हुआ था। सितम्बर 1976 में भारत में 1.7 मिलियन से अधिक नसबंदी दर्ज की गई। आम नागरिकों को उनके शरीर पर नियन्त्रण से वंचित होना पड़ा। रेल में बिना टिकट पकड़े जाने पर नसबंदी करना, सबसे गरीब व सबसे कमजोर नागरिकों को नसबंदी शिविरों में भेजने के लिए संजय गांधी के बुलडोजर गिरोह ने वह सब किया जो उनसे अपेक्षित था। सरकारी अधिकारी जो पदोन्नति पेंशन एवं अन्य लाभ चाहते थे उन्हें नसबंदी की संख्या में वृद्धि करनी पड़ती थी। इसके लिए कई अविवाहित युवकों की भी जबरदस्ती नसबंदी करवा दी गई। जो लोग नसबंदी के जाल से बचकर व्यक्तिगत सम्मान व गरिमा का जीवन जीना चाहते थे, वे आतंक में रहते थे। नृवंशविज्ञानी एम्मा टार्लो ने दिल्ली में नसबंदी शिविरों के अत्याचार के अपने विवरण में लिखा हैं कि ‘जो कोई भी बच निकला उसके लिए सार्वजनिक स्थान, स्कूल, अस्पताल, सरकारी कार्यालय इत्यादि से बचना चाहिए।’
संजय गांधी और उनकी मंडली राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार की ओर बढ़ना चाहते थे और उन्होंने चार राज्य विधानसभाओं से एक नई संविधान सभा के गठन के लिए प्रस्ताव भी पारित करवा लिए थे। संजय की कोर टीम के सदस्य व हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि ‘‘चुनावी बकवास से छुटकारा पाओ। बस हमारी बहन (श्रीमती गांधी) को आजीवन राष्ट्रपति बना दो और कुछ करने की जरूरत नहीं हैं।’’इस प्रकार हिन्दी हार्ट लैंड संजय गांधी के लिए खेल का मैदान बन गई।
कार्यपालिका की शक्ति को असाधारण रूप से मजबूत करने से श्रीमती इंदिरा गांधी को न्यायपालिका के कार्यों और शक्तियों को चुनौती देने में मदद मिली, जिसकी परिणति न्यायाधीशों की उपेक्षा करके प्रधानमंत्री के अधिकार के दावे और अप्रैल 1973 में सर्वोच्च न्यायालय में एक विनम्र मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के रूप में हुई। एक शांत सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल के दौरान कार्यपालिका की कार्यवाही का समर्थन किया। बंदी प्रत्यक्षीकरण या एडीएम जबलपुर बनाम शिवकान्त शुक्ला मामले में कार्यपालिका से असहमत होने वाले न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना को भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद से वंचित रखते हुए उनसे जूनियर जस्टिस मिर्जा हमीदुल्लाह बेग को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। सरकार के इस निर्णय के विरोध में न्यायमूर्ति खन्ना ने तुरंत अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दिया। न्यायमूर्ति खन्ना के समर्थन में अखबारों ने कॉलम लिखे तथा देशभर के वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश पद के लिए जस्टिस खन्ना को नकारने के फैसले के खिलाफ प्रस्ताव पारित किये।
25 जनू 1975 को थोपा गया आपातकाल 21 मार्च 1977 को खत्म हुआ। आपातकाल का यह काला अध्याय मात्र एक राजनैतिक निर्णय नहीं था अपितु लोकतंत्र के खिलाफ ‘‘संविधान की हत्या’’ थी जिसमें देश की सबसे बड़ी ताकत जनता की आवाज को कुचलने का प्रयास किया गया।
भारत भूमि लोकतंत्र की जन्मस्थली है जहां वैशाली जैसे महान गणराज्य थे। हमारा संविधान हमारे देश की इसी अंतर्निहित प्रकृति का परिणाम हैं। हमारे लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी हैं कि कोई भी तानाशाह इसे नष्ट करना चाहेगा तो वह स्वयं नष्ट हो जायेगा।
आपातकाल का समय यह भी बताता है कि सत्ता में बैठे लोग जब संविधान और संस्थाओं की अवहेलना करते है तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है और लोकतंत्र केवल एक व्यवस्था नहीं, यह जनता का विश्वास है जिसे कायम रखने के लिए सभी नागरिकों को सतर्क, जिम्मेदार एवं जागरूक बने रहना होगा।