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जैसलमेर

मरुस्थल में हरियाली की जिद तो पानी की हर बूंद बचाने का संकल्प भी

विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस के मौके पर जब देश भर में जल संकट और पर्यावरण संरक्षण पर चर्चा हो रही है, तब जैसलमेर और बाड़मेर जैसे रेगिस्तानी जिले अपनी जिद, संघर्ष और समाधान की मिसाल बनकर उभर रहे हैं।

जैसलमेरJun 16, 2025 / 07:54 pm

Deepak Vyas

रेगिस्तान की राह, पानी की चाह और पानी के मटकों संग हर रोज़ उम्मीद का सफर।

विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस के मौके पर जब देश भर में जल संकट और पर्यावरण संरक्षण पर चर्चा हो रही है, तब जैसलमेर और बाड़मेर जैसे रेगिस्तानी जिले अपनी जिद, संघर्ष और समाधान की मिसाल बनकर उभर रहे हैं। यहां की तपती रेत, जलवायु की विकटता और सूखे की भयावहता के बावजूद हरियाली की एक नयी उम्मीद फिर से अंकुरित हो रही है। यह सरकारी योजनाओं की कहानी ही नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक चेतना और परंपराओं की सजीव तस्वीर भी है।

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सूखे से सदी भर की लड़ाई

बाड़मेर-जैसलमेर क्षेत्र लंबे समय से जल संकट, वर्षा की कमी और भूमि क्षरण जैसी समस्याओं से जूझता आ रहा है। लगातार घटती बारिश और बढ़ता भू-जल दोहन अब पर्यावरणीय आपातकाल की स्थिति बना चुका है। जैसलमेर में जहां कभी भू-जल स्तर 25 से 30 मीटर हुआ करता था, वहां आज कई इलाकों में यह 50 मीटर से भी नीचे जा चुका है। बाड़मेर में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। भू-जल विभाग के अनुसार औसत वर्षा में लगातार गिरावट ने पारंपरिक जल स्त्रोतों को लगभग मृत प्राय: बना दिया है।

हरियाली की पहल, नीतियां और नवाचार…

-रेगिस्तान को नखलिस्तान बनाने की जिद को योजनाओं का समर्थन भी मिला है।

-इंदिरा गांधी नहर परियोजना ने कई गांवों को पानी की नई राह दिखाई है।
-अमृत सरोवर, जल शक्ति अभियान, इको-ड्रिप सिंचाई, रेगिस्तानी पौधों का रोपण और पारंपरिक जल स्रोतों का पुनरुद्धार अब जैसलमेर-बाड़मेर की जीवन रेखा बन चुके हैं।
-जैसलमेर में खेजड़ी, रोहिड़ा जैसे पेड़ों का संरक्षण पर्यावरण की रक्षा में अहम भूमिका निभा रहा है।
-बाड़मेर में कई गांवों में जोहड़ों और कुंडों का जीर्णोद्धार किया गया है, जिससे वर्षा जल का संरक्षण हो सके।

पालीवाल समाज का जल विज्ञान यानी धरोहर में समाधान

पालीवाल ब्राह्मण समाज की ओर से 14वीं सदी में बनाए गए तालाब, नाडियां और जल संचयन प्रणाली आज भी जल संकट का प्रभावी समाधान बन सकती हैं। कुलधरा, खाभा, जाजीया, भणियाणा और लवां जैसे गांवों में बने ऐतिहासिक जलस्रोत जल संरक्षण के जीवंत उदाहरण हैं। इतिहासवेत्ता डॉ. ऋषिदत्त पालीवाल बताते हैं कि पालीवालों ने जल संग्रह को न केवल तकनीकी ढंग से विकसित किया, बल्कि उसे सामाजिक और धार्मिक जीवन से भी जोड़ा, वह भी मंदिर, श्मशान व यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था सहित।

हकीकत: जनभागीदारी के बिना अधूरी लड़ाई

पौधरोपण व जल संरक्षण से जुड़े व पेशे से सीए जयप्रकाश व्यास के अनुसार केवल सरकारी योजनाएं ही पर्याप्त नहीं है। गांव-गांव में जनसहभागिता जब तक नहीं होगी, तब तक स्थायी समाधान संभव नहीं है। जैसलमेर के ग्रामीणों ने कई क्षेत्रों में टांके, बेरियां और तालाब अपने श्रम से खोदकर तैयार किए हैं। पानी के प्रति लोगों की संवेदनशीलता ऐसी है कि यहां घी सस्ता, पानी महंगा जैसी कहावतें आज भी व्यवहार में दिखती हैं।

फैक्ट फाइल

-बाड़मेर व जैसलमेर में कई इलाकों में भू-जल स्तर 50 मीटर से नीचे

-मरुस्थल में इंदिरा गांधी नहर परियोजना, अमृत सरोवर, जल शक्ति अभियान का संचालन।
-प्रमुख पौधे- खेजड़ी व रोहिड़ा शुष्क भूमि के लिए अनुकूल और पर्यावरण हितैषी
-प्रमुख खतरा- भूजल दोहन, वन कटाई, पारंपरिक जल स्त्रोतों की उपेक्षा

आज और कल: संकट के साथ-साथ संभावना भी

जैसलमेर आज पर्यटन, सौर ऊर्जा और पीले पत्थर के कारण विश्व मानचित्र पर चमक रहा है, लेकिन जल संकट इसकी सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। बोरवेलों के अंधाधुंध दोहन, वन कटाई और परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों की अनदेखी भविष्य के लिए खतरा है। जानकारों की मानें तो यदि पुराने जल स्त्रोतों का पुनरुद्धार, भूजल रिचार्ज और पौधरोपण को सामूहिक जन-अभियान बनाया जाए तो यह इलाका आने वाले वर्षों में केवल टूरिज्म की ही नहीं, बल्कि सस्टेनेबल डेजर्ट डेवलपमेंट का मॉडल बन सकता है।

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