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Holika Dahan 2025: कांकेर में बेहद खास होता है होलिका दहन, हजार साल पुरानी अनोखी परंपरा आज भी है कायम

Holika Dahan 2025: 19वीं-20वीं सदी में कांकेर की होली में पीतल की पिचकारियां और प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता था। जैसे-जैसे समय बदला, प्लास्टिक की पिचकारियां और केमिकल वाले रंगों का दौर आया।

कांकेरMar 11, 2025 / 02:44 pm

Laxmi Vishwakarma

Holika Dahan 2025: कांकेर में बेहद खास होता है होलिका दहन, हजार साल पुरानी अनोखी परंपरा आज भी है कायम
Holika Dahan 2025: शहर और आसपास के इलाके के पुराने लोगों को आज भी 65 साल पहले की होली याद आती है। वो समय जब होली सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि ऐसी परंपरा थी, जो दोस्ती बढ़ाने, झगड़े और दुश्मनी को समाप्त करने के लिए होती थी। आज की होली की तरह ना केमिकल वाले रंग होते थे, ना मिलावटी मिठाइयां। वह होली थी आदर्श होली, जिसमें सभी लोग एक ही रंग में रंग जाते थे। कोई भी भेदभाव नहीं होता था।

Holika Dahan 2025: गढ़िया पहाड़ के नीचे होलिका दहन

कांकेर में होली की परंपरा एक हजार साल पुरानी है। जब कांकेर के कंडरा राजा गढ़िया पहाड़ पर किला बनाकर रहते थे। उनकी प्रजा भी वहीं उनके साथ रहती थी। राजा के समय जब पहली होली जलती थी, वह स्थान आज भी वही है। हर साल गढ़िया पहाड़ के नीचे होलिका दहन की अग्नि लेकर कांकेर के विभिन्न मोहल्लों में फैलाई जाती थी। यह रस्म अब भी निभाई जाती है। इसके बाद कांकेर का इतिहास राजा नरहर देव, कोमल देव और भानु प्रताप देव के शासन से भरा है।
इन शासकों के समय में भी होली धूमधाम से मनाई जाती रही। अब कांकेर की वह पुरानी होली केवल यादों में ही जीवित है। बुजुर्गों के लिए रंगों, मिठाइयों और मित्रता से भरी वह होली अब इतिहासों में ही जिंदा रह गई है। आज की होली में कैमिकल रंगों और मिलावटी मिठाइयों के बीच बुजुर्ग कहते हैं कि इन सबके चलते त्योहाराें पर भी काफी बुरा असर पड़ा है।
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19वीं-20वीं सदी से पीतल की पिचकारियां

19वीं-20वीं सदी में कांकेर की होली में पीतल की पिचकारियां और प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता था। जैसे-जैसे समय बदला, प्लास्टिक की पिचकारियां और केमिकल वाले रंगों का दौर आया। होली का आनंद पहले जैसा नहीं रह गया। सन् 1960 तक महाराजा भानु प्रताप देव ने कांकेर की होली का स्तर गिरने नहीं दिया। उनके समय तक होली में टेसू (पलाश) के रंग और देसी मिठाइयों का महत्व था। इस समय मिठाइयां भी असली देसी स्वाद वाली होती थीं। इन मिठाइयों का वितरण सभी पड़ोसियों और मित्रों में बिना भेदभाव के किया जाता था।

होली का समापन

Holika Dahan 2025: महाराजा भानु प्रताप देव दिनभर महल और मंदिरों में होली के कार्यक्रमों में शामिल होने के बाद शाम को राजापारा में अपने मित्र हबीब सेठ के यहां आते। हबीब सेठ महाराजा साहब से उम्र में बड़े थे, लेकिन दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी। इस दोस्ती का एक और पहलू ये था कि दोनों के लिए सिनेमा हॉल में कुर्सियां हमेशा पास-पास ही लगाई जाती थीं। यह दोनों मित्र होली के दिन ही मिलते थे।
शुद्ध मिठाइयों का लुत्फ उठाते थे। जब दोनों मित्र जी भर के होली खेल लेते थे, तो महाराजा की कार हबीब सेठ के घर से महल के लिए वापस लौटती थी। यह क्षण उस साल की होली का समापन माना जाता था। इसके बाद लोग नदी और तालाबों में स्नान के लिए जाते थे। ये परंपरा 1940 से 1960 तक चली। 1960 में हबीब सेठ के निधन के बाद उस समय की होली का महत्व फीका पड़ गया। अब तो होली के नाम पर सिर्फ रस्म अदायगी रह गई है।

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