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अभियान: अरुणोदय की धरती में संस्कारों के गुरुकुल बचा रहे जनजाति संस्कृति

अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर के पास ग्रामीण क्षेत्र में बने गुरुकुलों के बच्चों को सीबीएसई पाठ्यक्रम को जनजातीय जीवनशैली, परंपराओं, स्थानीय भाषाओं और प्रकृति-केंद्रित रीति-रिवाजों के साथ जोड़ कर शिक्षा दी जाती है। पढ़िए डॉ. मीना कुमारी की खास रिपोर्ट…

भारतJun 23, 2025 / 09:26 am

Shaitan Prajapat

औपचारिक शिक्षा के साथ दे रहे परंपराओं की सीख

पर्यटन के लिहाज से हमें मॉरीशस-मालदीव नजदीक लगते हैं लेकिन पूर्वाेत्तर अजनबी। पूर्वाेत्तर के सुदूर अरुणाचल प्रदेश काफी कुछ ऐसा रचा जा रहा है, जो भारत की जड़ों को थामे भविष्य की ओर उड़ान भर रहा है। देश में सूरज की पहली किरण यानी ‘अरुणोदय’ की धरती अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर से कुछ दूरी पर ग्रामीण क्षेत्र में जाएंगे तो वहां स्थानीय लिबास पहने छोटे-छोटे बच्चे और किशोर अपनी भाषा में बतियाते और लोक नृत्य करते दिखेंगे। प्रकृति के गोद में बने गुरुकुलों के ये बच्चे अपनी जनजातीय संस्कृति को जिंदा रखने के अभियान का हिस्सा हैं।
आधुनिक शिक्षा की चमक में गुम होती जनजातीय परंपराओं को इन गुरुकुलों के माध्यम से फिर से उभारने का काम हो रहा है। न्यिशी, गालो और आदि समुदायों के लिए स्थापित इन चार गुरुकुलों में आधुनिक सीबीएसई पाठ्यक्रम को जनजातीय जीवनशैली, परंपराओं, स्थानीय भाषाओं और प्रकृति-केंद्रित रीति-रिवाजों के साथ जोड़ कर शिक्षा दी जाती है।

288 बच्चे हो रहे शिक्षित-दीक्षित

इन चार गुरुकुलों में शिक्षित-दीक्षित हो रहे 288 बच्चे उस ताने-बाने का हिस्सा हैं, जो अरुणाचल की सांस्कृतिक धरोहर को बुनता है। इन गुरुकुलों में बच्चे सिर्फ अंग्रेजी-गणित नहीं पढ़ते, बल्कि ‘म्यॉइंग’ जैसे पारंपरिक भूमि पूजन, टैपु युद्ध नृत्य और लोकगीतों को भी जीते हैं।

भाषा बदली तो आया बचाने का खयाल

दरअसल 4-5 साल पहले इंजीनियर कातुंग वाहगे और उनके दोस्तों को गांवों की सैर के दौरान पता चला कि बच्चे स्थानीय भाषा नहीं जानते। थोड़ा गहराई में जाने पर पता चला कि गांवों के किशोरों को स्थानीय संस्कृति व परंपराओं की सामान्य जानकारी भी नहीं है। आशंका हुई कि यही हालात रहे तो आने वाले समय में उनकी भाषा व संस्कृति लुप्त हो जाएगी। इसी में विचार आया कि बच्चों को शिक्षा के साथ संस्कृति व परंपराओं के ज्ञान के लिए गुरुकुल खोले जाएं। लोगाें से इस विचार को समर्थन मिला और गुरुकुलों बच्चे आने लगे। इन गुरुकुलों में बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा व ज्ञान मिलता है।
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लोगों से मिली मदद तो संस्थाएं भी आगे आई

संस्कृति के पहरुए बने इन गुरुकुलों को स्थानीय लोगाें ने आर्थिक मदद की। बाद में डोनी पोलो सांस्कृतिक एवं चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना की गई। उसके बाद पंजाब नेशनल बैंक, ऑयल इंडिया लिमिटेड, कांची शंकर मठ जैसी संस्थाओं से भी मदद मिलने लगी। विवेकानंद केंद्र के सहयोग से गुरुकुलों को सीबीएसई से मान्यता मिली जिससे औपचारिक शिक्षा की भी शुरुआत हुई।

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