मेरे साथ धक्का-मुक्की की गई
सीएम ने कहा कि मेरे साथ शारीरिक धक्का-मुक्की की गई, लेकिन मैं ज़्यादा कठोर स्वभाव का हूं। मुझे कब्रिस्तान जाने से रोका नहीं जा सकता था। मैं कोई गैरकानूनी या अवैध काम नहीं कर रहा था। दरअसल, इन “कानून के रक्षकों” को यह बताना होगा कि वे किस कानून के तहत हमें फातिहा पढ़ने से रोकने की कोशिश कर रहे थे।
फातिहा पढ़ने गए थे सीएम
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, उनके पिता डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उप-मुख्यमंत्री सुरिंदर चौधरी, मुख्यमंत्री के सलाहकार नासिर असलम वानी, कुछ नेशनल कॉन्फ्रेंस के मंत्री और अन्य लोग पुराने शहर श्रीनगर स्थित शहीदों के कब्रिस्तान गए। वहां फातिहा पढ़ी और उन लोगों की कब्रों पर फूल चढ़ाए जो 13 जुलाई, 1931 को जेल प्रहरियों द्वारा की गई गोलीबारी में मारे गए थे।
हाउस अरेस्ट की जानकारी सोशल मीडिया पर साझा की
इससे पहले जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला समेत कश्मीर के बडे़ नेताओं ने रविवार को केंद्र सरकार व उप राज्यपाल प्रशासन पर आरोप लगाया कि उन्हें हाउस अरेस्ट कर लिया गया है। सीएम अब्दुल्ला ने अपने घर में नजरबंदी को जम्मू-कश्मीर के अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार बताया। सीएम ने घर के बाहर बख्तरबंद गाड़ी की कई तस्वीरें भी साझा की है। उमर अब्दुल्ला ने X पर लिखा- दिवंगत भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के शब्दों में कहें तो जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र अनिर्वाचित लोगों का अत्याचार है। इसे आज आप सभी समझ जाएंगे। नई दिल्ली के अनिर्वाचित प्रतिनिधियों ने जम्मू कश्मीर की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को बंद कर दिया गया है।
उप राज्यपाल मनोज सिन्हा पर कसा तंज
सीएम अब्दुल्ला ने केंद्र शासित प्रदेश के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा का नाम लिए बिना कहा कि अनिर्वाचित सरकार ने निर्वाचित सरकार को बंद कर दिया है। यही नहीं, उन्होंने 1931 के कश्मीर शहीदों की तुलना जलियावाला बाग के शहीदों से की। उन्होंने कहा कि 13 जुलाई का नरसंहार हमारा जलियांवाला बाग है। जिन लोगों ने अपनी जान कुर्बान की। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी जान कुर्बान की। उस समय कश्मीर पर ब्रिटिश शासन था। उन्होंने कहा कि यह कितनी शर्म की बात है कि ब्रिटिश शासन के हर रूप के खिलाफ लड़ने वाले सच्चे नायकों को सिर्फ इसलिए खलनायक बताया जा रहा है क्योंकि वह मुसलमान थे। हम उनके बलिदान को हमेशा याद रखेंगे।
आखिर 13 जुलाई 1931 को हुआ क्या था
13 जुलाई कश्मीर के इतिहास का महत्वपूर्ण दिन है। साल 1931 में 13 जुलाई को कश्मीरियों का एक समूह श्रीनगर जेल के बाहर विरोध प्रदर्शन कर रहा था। वह सभी अब्दुल कादिर के समर्थक थे। उन्होंने कश्मीरियों से डोगरा शासक हरि सिंह के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकने का आह्वान किया था। 13 जुलाई को प्रदर्शनकारियों का एक बड़ा समूह जेल के बाहर इकट्ठा हुआ। जहां कादिर को कैद करके रखा गया था। प्रदर्शन का दमन करने के लिए राजा हरि सिंह की सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी। इसमें 22 लोग मारे गए। 13 जुलाई की जनघन्या हत्याओं ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन को जन्म दिया। डोगरा शासक और अंग्रजों को घाटी में कश्मीर में मुसलमानों की शिकायतों पर ध्यान देना पड़ा। इसके राजनीतिक परिणाम भी सामने आए। जम्मू-कश्मीर में पहले विधानसभा चुनाव भी 13 जुलाई के हत्याकांड का परिमाण था। यहीं से लोकतांत्रिक परंपरा की शुरुआत हुई।
धारा 370 हटने के बाद समारोह पर रोक
साल 2019 से पहले हर साल 13 जुलाई को शहीदों के कब्रिस्तान में पुलिसकर्मी को बंदूकों की सलामी देते थे। पुष्पांजलि अर्पित करते थे। जनसभाएं होती थी, लेकिन 5 अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने से यह प्रथा बंद हो गई। प्रशासन ने शहीदों के कब्रिस्तान में किसी भी समारोह पर रोक लगा दी।