उत्तराखंड सरकार ने यह नियम फरवरी 2024 में लागू किए गए समान नागरिक संहिता (UCC) अधिनियम के तहत पारित किए हैं। इस अधिनियम के अनुसार, लिव-इन रिलेशनशिप शुरू करने और समाप्त करने के दौरान, जोड़ों को राज्य सरकार के पास पंजीकरण कराना अनिवार्य होगा। यदि पंजीकरण नहीं कराया जाता है, तो उन पर छह महीने तक की जेल की सजा हो सकती है। यह कानून राज्य के निवासियों के अलावा अन्य राज्यों के नागरिकों पर भी लागू होगा।
लिव-इन रिश्तों के पंजीकरण में आवश्यक दस्तावेज़
नियमों के अनुसार, पंजीकरण के लिए जो दस्तावेज़ प्रस्तुत किए जाने हैं, उनमें लिव-इन रिलेशनशिप में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों का “मध्यम या धर्मनिरपेक्ष” विवाह की पात्रता का प्रमाण होना आवश्यक है। इस प्रमाण को किसी धार्मिक नेता या समुदाय के प्रमुख द्वारा जारी किया जाएगा, जैसे कि पुजारी, मौलवी, या अन्य धार्मिक प्रतिनिधि। इस प्रमाणपत्र में यह सुनिश्चित किया जाएगा कि युगल जिस धार्मिक समुदाय से संबंधित हैं, वहां उनके संबंधों को विवाह की स्वीकृति प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, यदि जोड़े के पास पूर्व के रिश्तों के प्रमाण हैं, तो उन्हें भी पंजीकरण के दौरान पेश करना होगा। इसमें तलाक का अंतिम आदेश, विवाह को रद्द करने का अंतिम आदेश, पति या पत्नी के मृत्यु प्रमाण पत्र या किसी समाप्त लिव-इन रिलेशनशिप का प्रमाण पत्र शामिल हो सकते हैं।
लिव-इन रिश्तों के अधिकारों को सुरक्षा देने की आवश्यकता
राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी लिव-इन रिश्तों के कानूनी पहलू पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। कोर्ट ने इस बात पर बल दिया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों और उनके बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक विशेष कानून बनाने की आवश्यकता है। अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि क्या विवाह विच्छेद किए बिना लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले विवाहित व्यक्ति कोर्ट से सुरक्षा की मांग कर सकते हैं। कोर्ट ने कहा कि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को वैधता देने वाला कोई विशेष कानून नहीं है। भारतीय समाज में यह पश्चिमी विचार के रूप में देखा जाता है, और वर्तमान में हमारे देश में यह किसी विशेष कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और मुस्लिम पर्सनल लॉ दोनों ही लिव-इन रिश्तों को मान्यता नहीं देते, और इसे कई बार ‘ज़िना’ (अवैध संबंध) और ‘हराम’ (अवैध) माना जाता है।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में लिव-इन रिलेशनशिप को अवैध नहीं माना है, लेकिन राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि इस प्रकार के रिश्तों में समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, खासकर महिलाओं की स्थिति को लेकर। महिला की स्थिति इस प्रकार के रिश्तों में पत्नी जैसी नहीं होती, और इसमें सामाजिक सहमति या पवित्रता का अभाव होता है।
सुप्रीम कोर्ट और संविधान में लिव-इन रिश्तों की स्थिति
सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत यह स्वीकार किया है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद के साथी के साथ रहने का अधिकार है, और यह अधिकार लिव-इन रिश्तों में भी लागू होता है। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान केवल संसद या राज्य विधानसभा द्वारा कानून बनाकर किया जा सकता है। उत्तराखंड और राजस्थान दोनों ही राज्यों ने लिव-इन रिलेशनशिप के कानूनी और सामाजिक पहलुओं पर महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। जहां उत्तराखंड ने लिव-इन रिश्तों के पंजीकरण और संबंधित दस्तावेज़ों की सख्त प्रक्रिया लागू की है, वहीं राजस्थान उच्च न्यायालय ने लिव-इन रिश्तों की वैधता और इस प्रकार के रिश्तों में अधिकारों की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई है।