पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और इंटरनेट की आसान उपलब्धता के कारण युवा पीढ़ी तेजी से डिजिटल सामग्री से प्रभावित हो रही है। यह कहना गलत नहीं होगा कि सोशल मीडिया के इस दौर में लोकप्रियता का पैमाना गिर चुका है। जो कंटेंट जितना अधिक सनसनीखेज, भड़काऊ या अश्लील होता है, उसे उतना अधिक देखा और सराहा जाता है। यह विडंबना ही है कि हमारे युवा जिन संस्कारों पर गर्व करने की बात करते हैं, वही संस्कार उन्हें पुरातनपंथी और असहज लगने लगे हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म भी इस दिशा में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। जिस प्रकार से गाली-गलौज, हिंसा और अश्लीलता को सामान्य किया जा रहा है, वह चिंताजनक है। पहले सिनेमा और टेलीविजन पर कड़े सेंसर नियम लागू होते थे, जिससे एक सीमित दायरे में रहकर मनोरंजन प्रस्तुत किया जाता था। लेकिन अब डिजिटल क्रांति के चलते यह नियंत्रण लगभग समाप्त हो गया है। आज के दौर में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म किसी भी तरह की सामग्री के लिए खुले हैं, जिससे परिवार के साथ बैठकर देखने योग्य कंटेंट लगातार घटता जा रहा है।
सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि इस तरह के कंटेंट का प्रभाव बच्चों और किशोरों पर पड़ रहा है। अभिभावक अक्सर यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि उनके बच्चे ऑनलाइन क्या देख रहे हैं और किस प्रकार की मानसिकता विकसित कर रहे हैं। डिजिटल युग में मोबाइल और इंटरनेट बच्चों के हाथों में इतनी आसानी से उपलब्ध है कि वे किसी भी प्रकार की सामग्री तक बेरोकटोक पहुँच सकते हैं। नतीजा यह हो रहा है कि नैतिकता और शालीनता का पाठ पढ़ने से पहले ही वे अश्लीलता और अनैतिकता के दलदल में फँस रहे हैं। इस समस्या की जड़ में केवल सोशल मीडिया नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता भी शामिल है। आज एक व्यक्ति किसी भी प्रकार का विवादित या अपमानजनक कंटेंट बनाता है, तो उसे बड़ी संख्या में दर्शकों का समर्थन भी मिलता है। तालियाँ बजती हैं, वीडियो वायरल होते हैं और कॉन्टेंट क्रिएटर्स को इससे प्रसिद्धि और आर्थिक लाभ मिलता है। जब तक समाज स्वयं इस तरह की सामग्री को प्रोत्साहित करता रहेगा, तब तक इसका प्रभाव कम नहीं होगा।
यह सही है कि हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी संस्कृति, मूल्यों और सामाजिक मर्यादाओं को तोड़कर कुछ भी कहने और दिखाने लगें। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि क्रिएटिविटी और अश्लीलता के बीच स्पष्ट रेखा खींची जाए। आज दुनियाभर में सरकारें सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों को लेकर सतर्क हो रही हैं। हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग पर प्रतिबंध लगाया है। भारत में भी सोशल मीडिया से जुड़ी कई समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। केवल युवाओं की लत ही नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर फैली अश्लीलता और अनैतिकता भी एक गंभीर मुद्दा बन चुकी है। हमें यह समझना होगा कि डिजिटल प्लेटफॉर्म केवल मनोरंजन के साधन नहीं हैं, बल्कि वे हमारे समाज की दिशा और दशा तय करने वाले महत्वपूर्ण उपकरण बन चुके हैं।
ऐसे में अब समय आ गया है कि सरकार सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सख्त नियम लागू करे। सेंसरशिप और नैतिकता की सीमाओं को पुनः परिभाषित किया जाए। साथ ही, अभिभावकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके बच्चे किस प्रकार की सामग्री देख रहे हैं। डिजिटल शिक्षा केवल तकनीकी ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें नैतिकता और विवेक का समावेश भी अनिवार्य होना चाहिए। भारतीय समाज आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जहाँ परंपरा और आधुनिकता के बीच संघर्ष स्पष्ट दिखाई देता है। यह जरूरी नहीं कि आधुनिकता का मतलब अश्लीलता और अनैतिकता हो। हमें यह तय करना होगा कि हम किस प्रकार की डिजिटल संस्कृति को अपनाना चाहते हैं। यदि हम इस गिरते स्तर को नहीं रोक पाए, तो यह केवल मनोरंजन के पतन तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि समाज की मूलभूत संरचना को भी गहरा नुकसान पहुँचा सकता है। इसीलिए हमें अब यह निर्णय लेना होगा कि हम एक सभ्य, नैतिक और सुसंस्कृत डिजिटल समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं, या फिर लाइक्स, व्यूज और वायरल कंटेंट के अंधे खेल में अपनी सांस्कृतिक पहचान को मिटाने के लिए तैयार हैं।