कुमुदिनी ने कथक को मंचीय-विस्तार दिया। मंच पर खाली जगहों, वहां की निष्क्रियता में नृत्य और नृत्त की ऊर्जा संग उन्होंने उमंग भरी। कथक में समूह नृत्य की प्रवर्तक वही थीं। नृत्य—नृत्त के भेद समझाते कुमुदिनी ने कथक के बंधे-बंधाए नियमों के अनुशासन को बरकरार रखते हुए भी कथक को समयानुरूप आधुनिक दृष्टि दी। सर्वथा नया व्याकरण विकसित किया। बंधे—बंधाए कथानकों की रूढि़ में कथक के होने की मुक्ति की राह भी किसी ने तलाशी तो वह कुमुदिनी लाखिया थीं। याद है, भोपाल स्थित अलाउद्दीन खां अकादमी के उपनिदेशक रहे, मित्र राहुल रस्तोगी संग एक बार संवाद में यह तय हुआ था कि कुमुदिनी लाखिया की कथक-विचार दृष्टि को उनके यहां जाकर हम संजोएंगे। पर कुछ व्यवधान ऐसे उभरे कि यह संभव नहीं हो सका। पर इस दौरान उनकी कला की मौलिकता को निरंतर जिया। वह नाचतीं तो आंगिक क्रियाएं विचार बन हमसे संवाद करतीं। नृत्य में देह का विसर्जन कर विचार का प्रगटीकरण किसी ने किया तो वह कुमुदिनी लाखिया थीं। उनकी नृत्य—प्रस्तुतियां ‘सेतु’, ‘चक्षु’, ‘दुविधा’, ‘कोट’ देखते सदा ही यह लगता है कि नृत्य में अमूर्त भी खंड—खंड अखंड विचार बन हममें समाता चला जाता है।
कुमुदिनी ने नृत्य में लोक का आलोक संजोया। छाया—प्रकाश, रंगों और परिधानों के बंधे—बंधाए ढर्रे को तोड़ते कथक में कोरियोग्राफी का नया शास्त्र आरंभ किया। कथक में बेले सरीखी छलांग लगाते उड़ान के दृश्य प्रस्तुत करना, तैरना, फिसलना और उतरने की जो अंग—क्रियाएं कुमुदिनी ने ईजाद कीं, वह कथक के भविष्य का उजास है। नृत्य में अपने आपको वह विसर्जित कर देती थीं। यह उनकी कला-दृष्टि ही थी, जिसमें उन्होंने नृत्य में बाधा बनते दुपट्टे को हटाकर पोशाक की रूढिय़ों को तोड़ा।
— डॉ.राजेश कुमार व्यास
(संस्कृतिकर्मी, कवि)