यह सही है कि निजता का अधिकार उतना ही जरूरी है, जितना सूचना का अधिकार। लेकिन, जब निजता की आड़ में पारदर्शिता पर पर्दा डाला जाने लगे, तो लोकतंत्र की आत्मा आहत होती है। डीपीडीपीए, 2023 इसी चिंता का केंद्र बन गया है। इसकी धारा 44 (3) सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण धारा 8(1)(जे) को इस तरह संशोधित करती है कि अब कोई भी व्यक्तिगत पहचान संबंधी सूचना, चाहे वह बड़े पैमाने पर जनहित में हो तब भी आरटीआइ के तहत नहीं मिल सकती है। आरटीआइ ने महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक लक्ष्यों को मजबूत किया है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग रोकने तथा लोगों को उनके हक की प्राप्ति का औजार मिला। लेकिन, यह नया संशोधन लोकतांत्रिक पारदर्शिता के बुनियादी सिद्धांत पर सीधा प्रहार करता है। आरटीआइ सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है। अफसरों और संस्थाओं की कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाता है, पर अब इस बदलाव से कई जनहित से जुड़ी जानकारियां, जैसे—किस अफसर ने भ्रष्टाचार किया, किस उद्योग ने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया या किस संगठन ने मतदाता डेटा का दुरुपयोग किया-इन सब पर पर्दा डाला जा सकेगा।
इस प्रकार की सारी सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं करने से अन्याय, भ्रष्टाचार तथा जनता का शोषण होता रहेगा। इसी दौरान न्यायालयों से कुछ ऐसे निर्णय आए हैं, जो दिखाते हैं कि आरटीआइ और उसके सिद्धांत कितने जरूरी हैं। 10 अप्रेल 2025 को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने एक सख्त टिप्पणी करते हुए साफ किया कि सूचना आयोग अयोग्य व्यक्तियों की सूचना छिपाने की ढाल नहीं बन सकता। यह टिप्पणी तब आई जब आयोग ने वन विभाग की नियुक्ति प्रक्रिया में उम्मीदवारों के साक्षात्कार मूल्यांकन को साझा करने से मना कर दिया। कोर्ट ने इसे पारदर्शिता के विरुद्ध माना और सूचना आयुक्त पर 25,000 रुपए का जुर्माना लगाया। यह निर्णय केवल एक मामले तक सीमित नहीं है, यह एक व्यापक सच्चाई को उजागर करता है कि कई आयोग भी आरटीआइ की धार कुंद कर रहे हैं। आरटीआइ एक्ट की मूल धारा 8 (1) जे कहती है कि सार्वजानिक हित को प्रभावित करने वाली ‘निजी सूचनाएं’ सार्वजनिक की जाएंगी क्योंकि वे वाकई में सार्वजनिक सूचनाएं हैं।
आरटीआइ संशोधन के खिलाफ 130 से अधिक सांसदों, स्वयंसेवी संगठनों, पत्रकारों, शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एकजुट होकर विरोध दर्ज किया है। उनका कहना है कि डीपीडीपीए निजता के नाम पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा और यह जनहित को बाधित करेगा। साथ ही यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिक भागीदारी को कमजोर करता है। यदि हर किसी से अनुमति लेकर ही उसका नाम लिया जा सकता है तो लोकतान्त्रिक बहस और संवाद समाप्त हो जाएगा। इसलिए यह विरोध केवल राजनीतिक नहीं है, यह उस संवैधानिक चेतना की अभिव्यक्ति है, जो भारत को एक उत्तरदायी और पारदर्शी देश के रूप में देखना चाहते हैं। डीपीडीपीए के तहत कोई भी व्यक्ति यदि किसी अन्य की जानकारी बिना अनुमति के साझा करता है, चाहे वह व्यापक जनहित में ही क्यों न हो, तो उस पर 250 रुपए से 500 करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह प्रावधान स्वतंत्र पत्रकारिता, जनहित रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता, नागरिक जर्नलिज्म तथा व्हिसलब्लोइंग को सीधे खतरे में डालता है।
ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या हम एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जहां सच्चाई को बताने की कीमत इतनी भारी हो कि लोग बोलने से डरने लगें? डीपीडीपीए की मूल भावना डेटा कंपनियों की आम नागरिक की सूचनाओं तक पहुंच से सुरक्षा होनी चाहिए, लेकिन इस कानून में सरकार ने स्वयं एवं सरकार द्वारा चिह्नित एवं नामित संस्थाओं को इसके दायरे से बाहर रखने का प्रावधान जोड़ा है। इस कानून की धारा 36 में सरकार ने किसी से भी कोई भी सूचना लेने की शक्ति अपने आपको प्रदान की है। कंपनियों एवं सरकार के शक्तिशाली गठजोड़ से निजता भी समाप्त होगी और डेटा प्रोटेक्शन भी, सरकार की आलोचना करने वाले लोग इस कानून के असली निशाना बनेंगे। आज हमें ऐसी पारदर्शिता चाहिए, जो निजता को खतरे में न डाले और ऐसी निजता तो बिल्कुल नहीं चाहिए, जो लोकतंत्र को ही अंधकार में धकेल दे। आवश्यकता है सूचना और निजता के बीच संतुलन की, जहां जनहित सर्वोपरि हो और सच्चाई को दबाने का कोई बहाना न चले। आरटीआइ धारा 8 (1) जे ऐसा ही संतुलन बनाए रखती थी। आरटीआइ को कमजोर नहीं और ताकतवर बनाना चाहिए। इस संशोधन को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। डीपीडीपीए बदलाव के साथ ही लागू करना चाहिए।