ड्रैगन फ्रूट ऐसा ही फल है। कांटेदार बाहरी खोल और भीतर गुलाबी या सफेद मुलायम गूदा स्वास्थ्यवर्धक, आकर्षक और रहस्यमय। लेकिन जब यह फल गुजरात की धरती पर उगा, तो ‘कमलम’ कहलाया। यह परिवर्तन जनवरी 2021 में उस समय हुआ, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय विजय रूपाणी ने इसकी घोषणा की। उन्होंने कहा कि ड्रैगन जैसा नाम भारत की संस्कृति और सोच से मेल नहीं खाता, इसलिए इसे “कमलम” कहा जाएगा। यह केवल नामकरण नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक संदेश था कि फल भी भारतीय विचारधारा में ढल सकते हैं। कमल के समान खिलता यह फल, किसान की मेहनत से खेतों में रंग भरता है और स्वाद के साथ-साथ एक नई राष्ट्रीय पहचान भी देता है। नाम बदलकर कमलम हुआ, स्वाद वही रहा पर सोच में देसीपन घुल गया।
कुछ फल ऐसे भी हैं जो दूर देशों से आए, पर आज हमारे जीवन का हिस्सा हैं। अमरूद, जिसे हम इतने अपनत्व से पुकारते हैं, दरअसल मेक्सिको और पेरू की देन है। पुर्तगाली व्यापारियों के ज़रिए यह भारत आया और फारसी में “ग्वाजावा” से बनते-बनते “अमरूद” बन गया। अब यह इलाहाबादी सफेदा हो, लखनऊ का गुलाबी हो या जयपुर की गलियों में कागज़ में लिपटा अमरूद यह किसी भी मायने में विदेशी नहीं रहा। इसका स्वाद वैसा ही है जैसे कचहरी के बाहर बिकती नमक-मिर्च लगी सच्चाई खरा, खट्टा-मीठा और पूरी तरह देसी।
दूसरी ओर कीवी है चीन में जन्मा, न्यूज़ीलैंड में पला और भारत में फलवाले की टोकरी में सम्मान से बैठा। भूरी झिल्ली में लिपटा हरा चमत्कार, जिसने कभी नाम नहीं बदला, पर सोच बदल दी। इसका संदेश यही रहा “मुझे स्वाद से पहचानों।” नाम विदेशी सही, पर स्वीकार्यता पूरी तरह भारतीय।
ऐसा ही फल है अनानास जो संस्कृत के “नानस” शब्द से निकला ‘अनानस’ बन गया। फ्रेंच, स्पैनिश, रूसी सभी ने इस नाम को अपने ढंग से अपनाया, पर अंग्रेजों ने इसे “पाइनएप्पल” कहा। भारत ने दोनों को सहजता से स्वीकार किया। यह फल कटोरे में चूना-नमक लगाकर रेलवे स्टेशनों पर बिकता रहा न कोई राजनीतिक विमर्श, न कोई भाषाई आग्रह। जैसा स्वाद, वैसा स्वभाव।
पपीता यानी पपाया दक्षिण अमेरिका से आया लेकिन भारत में इस कदर रच-बस गया कि अब वह डॉक्टर की सलाह, नानी के नुस्खे और हर हेल्थ वीडियो का हिस्सा है। मूल नाम ‘पपाया’ रहा होगा, पर भारत ने इसे “पपीता” बना लिया जैसे कोई प्रवासी रिश्तेदार मोहनलाल बन जाए। यह मधुर, सौम्य और सेहतमंद फल अब हर देसी रसोई का सदस्य है।
संत्रा भी कुछ ऐसा ही उदाहरण है। स्वाद में खट्टा-मीठा, नाम में संस्कारी। यूरोप का ‘ऑरेंज’ भारत में ‘संतरा’ बन गया बिना शोर के, बिना आग्रह के। यह फल स्कूल के टिफिन से लेकर बुखार में राहत तक हर जगह मौजूद रहा। ठेले पर बिकता हो या परांठे के साथ चटनी बन जाए संतरा भारत के खट्टे-मीठे रिश्तों का स्वाद बन चुका है।
और अंत में केले की बात वह फल जिसे न किसी ने बदला, न किसी ने चुनौती दी। मूलतः भारतीय, और पूरे भारत में सबसे अधिक अपनाया गया। पूजा में, प्रसाद में, गरीब की थाली में, मंदिरों में, घरों में यह ऐसा फल है जो खुद में ही परिपूर्ण है। इसे कोई बदल नहीं पाया, क्योंकि कुछ चीज़े इतनी मौलिक होती हैं कि समय भी उन्हें छू नहीं पाता।
भारत ने फलों को सिर्फ खाया नहीं उन्हें अपनाया, अपनत्व दिया, उनमें विचार और भावनाएं बोईं। कभी ‘कमलम’ बनाकर देशभक्ति की मिठास जताई, कभी ‘अमरूद’ में फारसी-हिंदुस्तानी संगम देखा, तो कभी ‘कीवी’ को बिना बदले अपनाकर उदारता की मिसाल रखी। यह आलेख यह जताता है कि भारतीयता केवल रंग, भाषा या पोशाक में नहीं, बल्कि हर स्वाद, हर नाम और हर सोच में रची-बसी है। जब फल भी कहने लगें कि “हम स्वाद से आए थे, पर संस्कृति में बस गए”, तब समझिए कि भारतीयता ने अपने दायरे में एक और पहचान को समेट लिया है।