संपादकीय: पारंपरिक खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने की जरूरत
स्वस्थ भारत की कल्पना तभी साकार हो सकती है जब हम अपने खानपान की प्राथमिकताओं को पुन: परिभाषित करें और स्वाद से अधिक स्वास्थ्य को महत्व दें।


अमरीकन जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव मेडिसिन में प्रकाशित ताजा शोध रिपोर्ट ने फिर चेताया है कि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड्स का ज्यादा समय तक सेवन करना जानलेवा सबित हो सकता है। ब्राजील यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की यह रिपोर्ट सचमुच चौंकाने वाली है। अमरीका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया समेत आठ देशों में करीब ढाई लाख लोगों पर किए गए शोध में पाया गया कि जहां ऐसे खाद्य पदार्थों का कम उपयोग था वहां जीवन की गुणवत्ता और आयु बेहतर पाई गई। जबकि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य सामग्र्री न केवल हमारे पाचन तंत्र को प्रभावित करती हैं, बल्कि मोटापा, हृदय रोग, मधुमेह और यहां तक कि मानसिक तनाव जैसी समस्याओं को भी जन्म देती हैं।
अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड का जिस तरह से पूरे विश्व में प्रचार—प्रसार हुआ है, उससे वह आर्थिक विकास के केंद्र में भी शामिल हो गया है। इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकॉनोमिक रिलेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वर्ष 2011 में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड का बाजार 723 करोड़ रुपए था, जो कि दस साल में यानी वर्ष 2021 में 2535 करोड़ रुपए तक पहुुच गया है। पिछले वित्तीय वर्ष तक इसकी खपत 6000 करोड़ रुपए को पार कर गई है। वहीं, इस साल भारत सरकार की ओर से जारी आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 के अनुसार भारत में चीनी, नमक और असंतृप्त वसा से भरपूर और पोषक तत्वों की कमी वाले अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों (यूपीएफ) की बढ़ती खपत कई पुरानी बीमारियों और यहाँ तक कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे रही है। भारतीय परिप्रेक्ष्य को देखें तो भी स्वस्थ भारत की कल्पना तभी साकार हो सकती है जब हम अपने खानपान की प्राथमिकताओं को पुन: परिभाषित करें और स्वाद से अधिक स्वास्थ्य को महत्व दें।
आज की भाग-दौड़ भरी जीवनशैली ने हमारे खानपान की आदतों को पूरी तरह बदल दिया है। पहले जहाँ घर का बना पौष्टिक भोजन हमारी प्राथमिकता हुआ करती थी, वहीं अब केक, कूकीज और आइसक्रीम जैसे अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड ने हमारी थाली में स्थायी जगह बना ली है। झटपट बनने वाले, स्वादिष्ट और आसानी से उपलब्ध ये खाद्य पदार्थ आधुनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं, लेकिन यह सुविधा हमारे स्वास्थ्य के लिए धीरे-धीरे ज़हर बनती जा रही है। भारत जैसे युवा और कृषि प्रधान देश में यह प्रवृत्ति और भी चिंताजनक है।
खास तौर से युवाओं के बीच इन फूड्स को लेकर क्रेज इस कदर है कि इनके बिना दिन की शुरुआत और अंत ही अधूरा लगता है। स्वाद और सुविधा के इस जाल में फंसकर हम पारंपरिक, पौष्टिक और स्वदेशी भोजन से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे में समय की मांग है कि सरकारें अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड पर नियंत्रण के लिए ठोस नीति बनाएं। मिलेट्स और पारंपरिक खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएं। स्कूलों, कॉलेजों और कार्यस्थलों पर हेल्दी फूड को प्रोत्साहित किया जाए। साथ ही, चरणबद्ध तरीके से ऐसे खाद्य पदार्थों के उपयोग को सीमित करने की दिशा में कार्य हो।
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