यह चिंता और इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि जलवायु खतरे के दुष्परिणामों को जानते-बूझते भी समूची दुनिया इस दिशा में ठोस कदम उठाने को जरूरी नहीं मानती। वल्र्ड मीटिअरलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएमओ) के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 साल में धरती का तापमान औसत से ज्यादा रहा है। इसमें तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। अंदेशा यह भी जताया जा रहा है कि वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। इसके बाद अगले पचास साल में दुनिया के औसत तापमान में दो से चार डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी की आशंका है।
बीती फरवरी को 1901 के बाद सबसे गर्म फरवरी माह घोषित किया था। अब अप्रेल में तेजी से तापमान में बढ़ोतरी को मौसमी बदलाव मानकर ही अनदेखा नहीं किया जा सकता। ये संकेत है कि बदलाव यों ही जारी रहा तो इसका असर धरती के समूचे मौसम चक्र और कालांतर में मनुष्य के जीवन चक्र पर पड़ेगा। बढ़ता तापमान सिर्फ गर्मी तक सीमित नहीं है। यह प्राकृतिक असंतुलन का संकेत है। यही कारण है कि पिछले वर्षों में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती चली गईं। म्यांमार में भूकंप हो या पिछले वर्ष वायनाड में हुआ भूस्खलन। पहाड़ी राज्यों में बढ़ती गर्मी हो या अतिवृष्टि के कारण होने वाले हादसे, सभी की वजह जलवायु परिवर्तन ही है। यह स्थिति इसलिए भी खतरनाक है कि वर्ष 2024 में ऐसी आपदाओं में 3,238 लोगों की जान गईं। यह आंकड़ा 2022 की तुलना में 18 फीसदी ज्यादा था। दुनिया में बढ़ते तापमान का ही असर रहा कि 2022 में कृषि पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आई। यह स्थिति आगे भी बरकरार रह सकती है।
इससे भारत जैसे कृषि प्रधान देश को बाकी दुनिया से अधिक खतरा होगा, क्योंकि भारत में खेती सर्वाधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र है। हमारे यहां फसल के अलावा कृषि से जुड़े पशुधन, मत्स्य जैसे तमाम पूर्ण व्यवसाय हैं, जो दांव पर लग सकते हैं। गर्मी और बढ़ते तापमान का संबंध पानी की उपलब्धता से भी है। जलसंकट की स्थिति मई-जून में और विकराल होगी। अब समय आ गया कि तेजी से बदले मौसम के अनुरूप ही हमें भी प्रकृति के साथ अपने बर्ताव में बदलाव लाना होगा। मौसम से जुड़ी चेतावनी को गंभीरता से लेना होगा। पौधरोपण और जल संरक्षण की नीतियां बनाना ही काफी नहीं हैं, इनके क्रियान्वयन पर भी ध्यान देना होगा। बिजली और पानी का सावधानी से उपयोग व प्रदूषण कम करने के कदम उठाने होंगे।