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संपादकीय : परिसीमन पर टकराव छोड़ सर्वसम्मत हल की दरकार

संसदीय सीटों के प्रस्तावित परिसीमन को लेकर दक्षिणी राज्यों के विरोध के स्वर लगातार मुखर हो रहे हैं। चेन्नई में इस मुद्दे पर दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के भी शामिल होने से संकेत मिल रहे हैं कि विपक्षी पार्टियां इसे बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में हैं। […]

जयपुरMar 23, 2025 / 09:50 pm

Sanjeev Mathur

संसदीय सीटों के प्रस्तावित परिसीमन को लेकर दक्षिणी राज्यों के विरोध के स्वर लगातार मुखर हो रहे हैं। चेन्नई में इस मुद्दे पर दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के भी शामिल होने से संकेत मिल रहे हैं कि विपक्षी पार्टियां इसे बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में हैं। दक्षिणी राज्यों की बड़ी आशंका यह है कि परिसीमन से उत्तर भारत के मुकाबले उनकी सीटें कम हो जाएंगी। उनकी यह आशंका निर्मूल नहीं है कि आबादी नियंत्रण के कार्यक्रम सफलता से लागू करने का उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। संविधान के मुताबिक परिसीमन आबादी के आधार पर होता है। सरकारी आंकड़ों से स्पष्ट है कि पिछले परिसीमन (2002) के बाद दक्षिणी राज्यों के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों में आबादी ज्यादा बढ़ी है। यानी सीटें भी उत्तर भारत में ज्यादा बढ़ेंगी।
परिसीमन के मुद्दे पर अतीत में भी विवाद सिर उठाते रहे हैं। नियमानुसार हर जनगणना के बाद लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों की विधानसभाओं की सीटें नए सिरे से तय होनी चाहिए। सत्तर के दशक में इमरजेंसी के दौरान तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने परिसीमन के हिसाब से सीटों का आवंटन यह कहकर रोक दिया था कि परिवार नियोजन की नीतियों को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले राज्यों को प्रतिनिधित्व के मोर्चे पर नुकसान नहीं होना चाहिए। वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में 2001 के परिसीमन के बाद निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं तो नए सिरे से तय की गईं, लेकिन दक्षिणी राज्यों के विरोध के कारण सीटों की संख्या में बदलाव नहीं किया गया। इसी विरोध को लेकर वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में 2002 में संविधान संशोधन के जरिए संसदीय सीटों का परिसीमन 2026 तक टाल दिया गया था। यानी तब भी विवाद की जड़ वही थी, जो आज है। हर जनगणना के बाद परिसीमन की व्यवस्था इसलिए की गई थी, ताकि बढ़ी आबादी के हिसाब से निर्वाचन क्षेत्रों और प्रतिनिधियों की संख्या तय की जा सके।
परिसीमन की प्रक्रिया पिछले 24 साल से अटकी पड़ी है। जाहिर है, आबादी और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच असंतुलन बढ़ा है। अब दक्षिण के राज्य फिर परिसीमन टालने की मांग भी कर रहे हैं। ऐसा करना राष्ट्र हित में नहीं होगा। नई जनगणना के फौरन बाद परिसीमन हो जाना चाहिए, ताकि असंतुलन और न बढ़े। परिसीमन का मुद्दा केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उसे दक्षिणी राज्यों को भरोसे में लेकर सर्वसम्मत हल की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। दक्षिण के राज्य भी दबाव की राजनीति के बजाय ऐसे फॉर्मूले की तलाश करें कि उनके हित भी सुरक्षित रहें और परिसीमन का रास्ता भी निर्बाध रहे।

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