हालांकि, ऐसा नहीं है कि महाकुंभ में भगदड़ के लिए सिर्फ प्रशासन की व्यवस्थाओं को ही कोसा जाना चाहिए। अमृत स्नान करने पहुंचे श्रद्धालुओं को भी यह सोचना होगा कि क्या वे एक अच्छे नागरिक धर्म का निर्वाह कर पा रहे हैं? यह सबको पता था कि करोड़ों लोग एक ही दिन में खास ‘संगम नोज’ पर पहुंचने की लालसा रखते हैं तो संगम तटों पर पहले पहुंचे लोगों का यह धर्म था कि वे जल्दी स्नान करके बाकी को मौका देते। लेकिन, उन्होंने ऐसा नहीं किया। जो लोग दो-तीन दिनों से स्नान कर रहे थे, वे फिर मौनी अमावस्था की शुभ घड़ी का इंतजार करते रहे, जैसे सोच रहे हों मैं और मेरा परिवार पुण्य कमा ले, बाकियों से हमें क्या…।
क्या वाकई में इस सोच से मुक्ति पाए बिना किसी को वह पुण्य मिल सकता है जिसकी अपेक्षा में वे तमाम कठिनाइयों के बावजूद महाकुंभ पहुंचे हैं या पहुंचने वाले हैं? ऐसे पर्व-त्योहार सामूहिकता का भाव बढ़ाने और अपनत्व का विस्तार करने ही आते हैं। धार्मिक आयोजनों के इस मूल उद्देश्य को भूल कर कोई क्या पुण्य कमाएगा? महाकुंभ में अभी तीन विशेष स्नान बाकी हैं। वसंत पंचमी, माधी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि। इन तिथियों पर भी करोड़ों लोगों के संगम तट पर पहुंचने की उम्मीद है। उम्मीद कर सकते हैं कि शासन-प्रशासन अब त्रुटिहीन व्यवस्था बनाने में कसर नहीं छोड़ेगा, लेकिन वहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को भी धर्म का मर्म समझना होगा। वरना ऐसे हादसे सबक सिखाते रहेंगे।