अपरा प्रकृति में पंचमहाभूत, मन, प्राण, अहंकार रहते हैं। पृथ्वी-पर्जन्य से उत्पन्न अन्न ही शरीर से मन तक का निर्माता है। शब्द-ब्रह्म ही अन्न-ब्रह्म का आधार है- प्राण रूप है। अत: सपूर्ण शरीर में समान रूप से प्रवाहित रहता है। शास्त्र तो शरीर को अन्न के द्वारा ही निर्मित मानते हैं। अन्न-ब्रह्म मुय रूप से अन्नमय कोश का निर्माण करता है। प्राणों के द्वारा मनोमय कोश का भी निर्माण करता है। आगे शब्द-ब्रह्म के माध्यम से ही यह मन श्वोवसीयस मन तक की यात्रा सपन्न करता है। किसी भी स्थूल तत्त्व को क्रियमान-सक्रिय रखने के लिए उसे भी गतिमान बनाए रखना होता है। शरीर स्थूल की चिनाई तो है किन्तु बिना जल के स्थायी भाव नहीं बनता। चूना-सीमेंट-मिट्टी बिना जल के टिके नहीं रह सकते। जल में प्राणों को सोखने की क्षमता होती है। जल का निर्माण अग्नि से होता है। अग्नि-जल (आप) मिलकर ही देह की चिनाई करते हैं। शब्द के स्पन्दन भी सदा रक्त में प्रवाहित रहते हैं और शरीर की आगे की धातुओं के स्वरूप को प्रभावित करते हैं। शरीर को रोगी-निरोगी रखने में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।
परा-अपरा प्रकृति स्त्रैण होने से शरीर भी स्त्रैण ही होता है, सौय होता है। वैश्वानर अग्नि के कारण उष्ण रहता है। वर्षा के कारण पृथ्वी-मन में कामना उठी, अग्नि प्रज्वलित हुई, कृषक ने बीज का वपन किया। यज्ञ सपन्न हुआ। पृथ्वी ने बीज को आवृत्त किया और निर्माण की दिशा में बढ़ गई। स्त्री देह ने पुरुष मन में कामना को जन्म दिया, मन में प्राणन हुआ। देह की उष्णता में सौयता आहुत हुई। पुरुष के सपूर्ण शरीर में व्याप्त हो गई। उष्णता की गति ने शरीर में व्याप्त आत्म शुक्र को एकत्र किया। पुरुष यहां पूर्ण रूपेण स्त्रैण है। सौय है। यही पुरुष की मूल शक्ति है।
प्रत्येक अग्नि में सोम और सोम के भीतर अग्नि रहता है। शुक्र तीन रूप में- वाक्-आप-अग्नि रूप में कार्य करता है। यह आत्मक्षर से अनुग्रहीत होकर आत्मतत्त्व (षोड़शी) से युक्त रहता है। रस-बल रूप आत्मा के सबन्ध से ही इसमें भी अमृत-मृत्यु भाव का उदय हो जाता है। दोनों के समन्वित रूप को ही पदार्थ कहते हैं। तीन शुक्र ही अमृत-मृत्यु रूप में छह हो जाते हैं।
अमृतगर्भित वाक्-आप-अग्नि के स्थूल-सूक्ष्म-सुसूक्ष्म भेद से कुल नौ रूप (नौ कल) बन जाते हैं। यही विश्व के उपादान हैं। वाक् की घन अवस्था शब्द है। वाक् वीचि (तरंग) ही शब्द का कारण बनती है। शब्द ही सूक्ष्म स्तर पर विकास (प्रकाश) बनता है। पहले विद्युत दिखाई पड़ती हैं फिर गर्जना सुनाई देती है। वास्तव में पहले शब्द और बाद में प्रकाश होता है (गति का अन्तर)। शब्द से ही विद्युत उत्पन्न होती है। सौरी वाक् ही शब्द बनकर विकास-प्रकाश भाव को प्राप्त हुई। शब्द ही अमृतावाक् के गर्भ में रहने से ज्ञान प्रकाश का जनक भी है। विकास के आगे की विकसित अवस्था प्राणावस्था कहलाती है। यहां सीमा भाव टूट जाता है, प्रकाश ही आकाश बन जाता है। आकाश ही वाक् है जिसका आधार इन्द्र तत्त्व है। अमृतावाक् पुरुष है, मर्त्यावाक् प्रकृति रूप (इन्द्र पत्नी) है। आकाश स्वरूप अवस्था है। यही स्थूल बनकर विकास, अति स्थूल बनकर शब्द रूप बनता है। आकाश (मर्त्यावाक्) ही शब्द बनता है। शब्द आकाश से उत्पन्न होता है, उसका गुण नहीं है।
आपशुक्र की विरल अवस्था सेाम है। प्राण रूप में अन्तरिक्ष में व्याप्त है। पंचाग्नि विद्या में वायु रूप में बदलता हुआ अप् रूप हो जाता है। अप् की दो अवस्थाएं भृगु-अंगिरा हैं। दोनों की तीन-तीन अवस्थाएं हैं। अत: वाक्-आप-अग्नि तीनों शुक्रों से वाक्शुक्र बन जाता है। उष्ण पदार्थों में अग्नि, शीत पदार्थों में आप तथा अनुष्णाशीत (न ठंडा न गर्म) पदार्थों का मूलाधार वाक् तत्त्व है। प्रत्येक पदार्थ में तीनों शुक्र प्रतिष्ठित रहते हैं। गौण-प्रधान रूप में। तीनों में क्रमश: सौर-चान्द्र-पार्थिव तत्त्वों की प्रधानता रहती है।
भूपिण्ड में अनुष्णाशीत पदार्थों का, चन्द्रमा में शीत तथा सूर्य में उष्ण पदार्थों का अन्तर्भाव रहता है। भूपिण्ड का निर्माण आप-अग्नि गर्भित वाक्शुक्र में हुआ। चन्द्रमा (पिण्ड) का निर्माण अग्नि-वाक् गर्भित आपशुक्र से हुआ, सूर्य (पिण्ड) का निर्माण- आपवाक् गर्भित अग्निशुक्र से हुआ। तीनों पिण्डों का उपादान मर्त्यशुक्र त्रयी (अग्नि-वाक्-आप) है। सूर्य पिण्ड जहां मर्त्य अग्निशुक्र का गोला है, वहीं सूर्य मण्डल में रहने वाला अमृतरूप सावित्राग्नि-प्राणाग्नि-अमृताग्नि शुक्र से संबंधित है। भू-चन्द्रमा में तो मर्त्य शुक्रों की प्रधानता है। सावित्राग्नि देव स्वरूप समर्पक है। सूर्य में अमृत-मृत्यु समान रूप से विकसित हैं। परमेष्ठी का निर्माण अमृताग्नि-वाक्शुक्र गर्भित आपशुक्र से हुआ है। स्वयंभू अमृताग्नि-आपशुक्र गर्भित अमृतावाक् से निर्मित हुआ है। हर जगह अमृत में मर्त्य एवं मर्त्यों में अमृत गर्भित है।
स्त्री इन्हीं तीन अमृत शुक्राें के माध्यम से जीवात्मा का तथा तीन मर्त्य शुक्रों से शिशु शरीर का निर्माण और पोषण करती है। पुरुष शरीर में भी ऋत रूप में स्त्रैण रहता है। इसकी अपूर्णता के वश में पुरुष भटकाव से संघर्ष भी करता है। पत्नी ही इसकी पूर्णता का माध्यम बनती है। दूसरे स्तर पर गर्भावस्था उसकी सूक्ष्म प्रकृति का कार्य रूप है। अन्त में स्त्री ही मनस्वी रूप से पुरुष-मन को सायास निवृत्ति की ओर धकेलती है। मन-प्राण-वाक् रूप तीनों ही स्तरों पर, तीनों ही शुक्रों (अग्नि-आप-वाक्) के सहारे पुरुष के जन्म से मोक्ष तक का संचालन करती है। चाहे मां रूप में, अथवा पत्नी रूप में। पिता वै जायते पुत्रो के अनुसार पुत्र के समान स्त्री पति की भी माता ही होती है। ब्रह्म के एकात्म बीज से माया रूप स्त्री नानात्व रूप विश्व का निर्माण एवं संचालन करती है। अन्त में ब्रह्म के जिस अंश को लेकर वह सृष्टि करती है, ‘बहुस्याम्’-उसे पुन: ब्रह्म तक पहुंचा देती है।
क्रमश: gulabkothari@epatrika.com