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राणा सांगा बनाम बाबर: राजनीति, युद्ध और इतिहास की सच्चाई

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

जयपुरApr 15, 2025 / 06:14 pm

Neeru Yadav

इतिहास केवल घटनाओं का संकलन नहीं, बल्कि उन व्यक्तित्वों का जीवंत दस्तावेज है, जिन्होंने अपने साहस, पराक्रम और दूरदृष्टि से समय की धारा को मोड़ा। इतिहास के पृष्ठों में वीरता और धैर्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं, किंतु कुछ चरित्र ऐसे होते हैं जो अपने साहस और रणनीतिक चातुर्य से एक युग को परिभाषित कर जाते हैं। राजस्थान की धरती वीरता, त्याग और शौर्य की अमर गाथाओं से सजी हुई है, और इसी भूमि ने इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अनेक महानायकों को जन्म दिया है। ऐसे ही एक यशस्वी और पराक्रमी शासक थे राणा सांगा, जिनका नाम भारतीय इतिहास में अदम्य साहस और अप्रतिम युद्धकौशल के प्रतीक के रूप में दर्ज है। उनका जीवन केवल युद्धों और संघर्षों की गाथा नहीं, बल्कि वीरता, कूटनीति और संगठन शक्ति की अनुपम मिसाल भी है। राणा सांगा केवल मेवाड़ के गौरवशाली सिसोदिया वंश के स्वाभिमानी शासक थे, बल्कि समूचे हिंदुस्तान में हिंदू शक्ति के अंतिम सशक्त प्रहरी के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनका जीवन संघर्ष, कूटनीति और रणकौशल की अद्वितीय मिसाल है, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को नया मोड़ दिया। उनका शासनकाल (1508-1528) न केवल युद्धों और संघर्षों से भरा था, बल्कि भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण मोड़ों में से एक था। उनके नेतृत्व में राजपूतों ने दिल्ली, गुजरात, और मालवा के सुल्तानों के विरुद्ध अनेक विजय प्राप्त कीं। आज भी, राणा सांगा के चरित्र पर ऐतिहासिक व्याख्याओं और राजनीतिक मतभेदों की छाया देखी जा सकती है। समकालीन घटनाएं सिद्ध करती हैं कि इतिहास केवल बीते समय का दस्तावेज नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की राजनीति का दर्पण भी है। आवश्यक है कि हम इतिहास को निष्पक्ष दृष्टि से देखें, ताकि राष्ट्र की गौरवशाली धरोहर को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकें और उससे प्रेरणा प्राप्त कर सकें।
समसामयिक विवाद और राजनीतिक संदर्भ:

हाल में समाजवादी पार्टी के एक सांसद द्वारा राणा सांगा और बाबर को लेकर दिया गया एक विवादास्पद बयान सुर्खियों में आ गया। इस बयान ने ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या के बहस को फिर से जीवंत कर दिया, जिससे विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक समूहों में आक्रोश फैल गया। सांसद ने अपनी टिप्पणी में बाबर को एक विजेता और राणा सांगा को पराजित योद्धा के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे कुछ लोगों ने इसे ऐतिहासिक तथ्यों का विकृतिकरण माना, जबकि कुछ ने इसे इतिहास के पुनर्पाठ की आवश्यकता से जोड़ा। यह विवाद दरअसल इतिहास की भिन्न व्याख्याओं और उनके राजनीतिक उपयोग का एक उदाहरण बन गया।
इस बयान पर राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आईं। भाजपा और कुछ अन्य राष्ट्रवादी संगठनों ने इसे भारतीय परंपराओं और गौरवशाली अतीत के अपमान के रूप में देखा, वहीं कुछ विपक्षी नेताओं ने इसे नए नजरिए से इतिहास को देखने की वकालत के रूप में प्रस्तुत किया। सोशल मीडिया पर भी यह मुद्दा गरमाया, जहां कुछ लोगों ने सांसद के बयान को ऐतिहासिक तथ्यों का तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने वाला बताया, तो कुछ ने इसे इतिहास के पुनर्मूल्यांकन के रूप में उचित ठहराया। यह घटनाक्रम बताता है कि इतिहास न केवल अतीत का दस्तावेज़ होता है, बल्कि वह समसामयिक राजनीति का भी हिस्सा बन जाता है।
यह इतिहास का राजनीतिकरण नया नहीं है। राणा सांगा और बाबर के संघर्ष की व्याख्या कभी धार्मिक, कभी सांस्कृतिक, तो कभी राष्ट्रीय गौरव के परिप्रेक्ष्य में की जाती रही है। सत्ता और विचारधाराओं की राजनीति में ऐतिहासिक घटनाओं का प्रयोग अक्सर अपनी अनुकूल व्याख्या के लिए किया जाता है। यह आवश्यक है कि इतिहास को तटस्थ और अकादमिक दृष्टिकोण से देखा जाए, न कि उसे समसामयिक राजनीतिक लाभ के लिए तोड़ा-मरोड़ा जाए।ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं का विश्लेषण तथ्यों के आधार पर हो, न कि वर्तमान राजनीतिक हितों के अनुरूप।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम सामाजिक सौहार्द

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह पूर्णतः निरंकुश नहीं है। यदि कोई बयान सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने वाला हो, तो सरकार कार्रवाई कर सकती है। ऐतिहासिक घटनाओं पर चर्चा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन यह सामाजिक शांति और एकता को प्रभावित न करे, इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।।यदि कोई बयान धर्म या जाति के आधार पर समाज में विद्वेष फैलाने का प्रयास करता है, तो भारतीय दंड संहिता की धारा 153(A) और 295(A) के तहत कार्रवाई हो सकती है।
इतिहास और राजनीति का अंतर्संबंध

इतिहास एक स्थिर तथ्य नहीं, बल्कि व्याख्या का विषय होता है। अलग-अलग ऐतिहासिक स्रोतों में बाबर और राणा सांगा की भूमिका को अलग-अलग तरीकों से प्रस्तुत किया गया है। इतिहास का राजनीतिकरण समाज में विभाजन और टकराव को बढ़ा सकता है। ऐतिहासिक घटनाओं का उपयोग किसी विशेष समूह को श्रेष्ठ या निम्न दिखाने के लिए किया जाता है, जिससे समाज में वैमनस्य बढ़ता है। राणा सांगा और बाबर दोनों ही इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जहाँ एक ओर राणा सांगा को हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीक माना जाता है, वहीं बाबर को एक आक्रांता या साम्राज्य निर्माता के रूप में देखा जाता है।
जानते है राणा सांगा और बाबर का वास्तविक इतिहास:

राणा सांगा की वीरता और उनकी युद्धनीति का वर्णन बाबर स्वयं “बाबरनामा” में किया है । बाबर लिखता है कि राणा सांगा उस काल के सबसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे, जिनकी सेना में 80,000 घुड़सवार और 500 युद्ध हाथी थे। उनके अधीनस्थ सात राजा, नौ राव, और 104 छोटे सरदार थे, जो उनकी शक्ति और प्रभाव का परिचायक है। इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी पुस्तक “मध्यकालीन भारत का इतिहास” में लिखते हैं कि सांगा ने राजपूतों को संगठित कर एक मजबूत गठबंधन तैयार किया था, जो दिल्ली सल्तनत के मुस्लिम शासकों के लिए एक गंभीर चुनौती था।
आर.सी. मजूमदार का मत है कि राणा सांगा और बाबर के बीच कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ था। वे इस धारणा को नकारते हैं कि सांगा ने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया था। बाबर का यह दावा केवल उसकी जीत को वैध ठहराने के लिए किया गया एक राजनैतिक औचित्य हो सकता है। इसी मत को हरीश चंद्र वर्मा भी अपनी पुस्तक “मध्यकालीन भारत” में दोहराते हैं, जिसमें वे स्पष्ट करते हैं कि राणा सांगा बाबर को केवल एक बाहरी आक्रमणकारी मानते थे, जो संभवतः तैमूर की भांति भारत में लूटपाट कर वापस चला जाएगा। लेकिन बाबर ने भारत में स्थायी रूप से बसने का निर्णय लिया, जिससे राणा सांगा के साथ टकराव अपरिहार्य हो गया।
बाबर का भारत आगमन और संभावित संपर्क

1526 में जब बाबर ने इब्राहिम लोदी को पानीपत के युद्ध में हराया, तब भारतीय उपमहाद्वीप में एक नए साम्राज्य की नींव पड़ी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राणा सांगा ने बाबर से इब्राहिम लोदी के विरुद्ध सहायता मांगी थी, लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। बाबर स्वयं “बाबरनामा” में लिखता है कि सांगा ने उन्हें आमंत्रित किया था, किंतु बाद में अपना वादा तोड़ दिया। इतिहासकार सतीश चंद्रा और आर.सी. मजूमदार इसे बाबर की एक रणनीतिक चाल मानते हैं, जिसका उद्देश्य अपनी जीत को औचित्यपूर्ण बनाना था। मेवाड़ के इतिहास से संबंधित ग्रंथों में इस प्रकार के आमंत्रण का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
खानवा का युद्ध (1527): एक निर्णायक मोड़

बाबर और राणा सांगा के बीच सबसे बड़ा संघर्ष 17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में हुआ। यह युद्ध मेवाड़ के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ। बाबरनामा में बाबर लिखता है, “यह युद्ध पानीपत से भी बड़ा था। यह हिंदुस्तान में हमारी स्थायी सत्ता की नींव रखने वाला संघर्ष था।” इस युद्ध में राणा सांगा की सेना को बाबर की तोपों और बारूदी हथियारों के समक्ष गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जेम्स टॉड अपनी पुस्तक “एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान” में राणा सांगा की वीरता का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि वे “राजपूत वीरता के प्रतीक थे,” जिनका शरीर 80 से अधिक घावों से ढका हुआ था, फिर भी वे रणभूमि से पीछे नहीं हटे।
इतिहासकार हरीश चंद्र वर्मा के अनुसार, खानवा के युद्ध में सांगा की हार के पीछे कई कारण थे- राजपूतों की आपसी फूट, बाबर की बेहतर सैन्य रणनीति, और सबसे महत्वपूर्ण, उनके सेनापति सिलहादी की गद्दारी। सिलहादी युद्ध के दौरान बाबर से जा मिला, जिससे राजपूतों की विजय की संभावनाएं समाप्त हो गईं।
बयाना का युद्ध (फरवरी 1527): राणा सांगा की प्रारंभिक सफलता

खानवा के युद्ध से पहले राणा सांगा ने बयाना में बाबर की सेना को पराजित किया था। इस छोटी लेकिन महत्वपूर्ण जीत ने बाबर को सांगा की सैन्य शक्ति का अहसास कराया। “बाबरनामा” में उल्लेख है कि इस जीत ने बाबर को अधिक सतर्क कर दिया। हिमा रूजा की पुस्तक “ए हिस्ट्री ऑफ राजस्थान” में भी इस युद्ध का विस्तृत वर्णन मिलता है।
राणा सांगा की मृत्यु और उनकी विरासत

खानवा के युद्ध के बाद भी राणा सांगा ने बाबर से दोबारा युद्ध करने का संकल्प लिया। किंतु उनके सरदार, जो अब बाबर से टकराने के पक्ष में नहीं थे, उन्होंने राणा सांगा को जहर दे दिया। उनकी मृत्यु 30 जनवरी 1528 को कालपी में हुई। “मेवाड़ के संक्षिप्त इतिहास की पांडुलिपि” में इसका उल्लेख मिलता है। जेम्स टॉड के अनुसार, राणा सांगा की मृत्यु ने राजपूतों की एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया। बाबर ने भी “बाबरनामा” में सांगा की मृत्यु का उल्लेख किया, किंतु जहर दिए जाने की घटना का उल्लेख नहीं किया।
राणा सांगा: एक प्रेरणास्रोत

राणा सांगा केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास के उन गिने-चुने नायकों में से एक थे, जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व और युद्धनीति से इतिहास की धारा को प्रभावित किया। वे केवल तलवार की शक्ति पर निर्भर नहीं थे, बल्कि उनकी राजनीतिक दृष्टि भी उतनी ही प्रभावशाली थी। उन्होंने पहली बार सभी राजपूत शासकों को एकजुट कर बाबर के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाया। “बाबरनामा” के अनुसार, उनके साथ सात राजा, नौ राव, और 104 छोटे सरदार थे। जेम्स टॉड उन्हें “सिपाही का अंश” कहते हैं, जो उनके अदम्य साहस को दर्शाता है।
गौरी शंकर हीराचंद ओझा अपनी पुस्तक “उदयपुर राज्य का इतिहास” में राणा सांगा को मेवाड़ का सबसे महान शासक मानते हैं। वे बाबर के दावे को खारिज करते हैं कि सांगा ने उसे भारत बुलाया था। वे इसे बाबर की कूटनीति का हिस्सा मानते हैं, ताकि राजपूतों को पराजित करने के लिए उचित कारण दिया जा सके।
शिक्षा और इतिहास लेखन का महत्व

इतिहास को तटस्थ रूप से पढ़ाने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि यह छात्रों को निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाने में सहायक होता है। जब इतिहास को किसी विशेष विचारधारा के चश्मे से देखा जाता है, तो यह न केवल तथ्यों को विकृत कर सकता है, बल्कि एकतरफा सोच को भी बढ़ावा दे सकता है। शिक्षा का मूल उद्देश्य यह होना चाहिए कि विद्यार्थी ऐतिहासिक घटनाओं को विभिन्न स्रोतों और साक्ष्यों के आधार पर समझें, ताकि वे स्वयं निष्कर्ष निकालने में सक्षम हों। यदि इतिहास को निष्पक्ष रूप से पढ़ाया जाए, तो यह समाज में स्वस्थ बौद्धिक विमर्श को बढ़ावा दे सकता है।
समाज में ऐतिहासिक चेतना विकसित करना केवल अतीत की जानकारी तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसका उद्देश्य वर्तमान और भविष्य को बेहतर बनाना होना चाहिए। इतिहास यह सिखाता है कि किन परिस्थितियों में समाज ने कौन-से निर्णय लिए और उनके परिणाम क्या हुए। यदि लोग इतिहास से सीख लें, तो वे भविष्य में उन्हीं गलतियों को दोहराने से बच सकते हैं। इसके अलावा, ऐतिहासिक चेतना लोगों को अपनी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है, जिससे समाज में एकता और सामूहिक पहचान मजबूत होती है। जब कोई राष्ट्र अपने इतिहास को समझता है, तभी वह अपनी भविष्य की दिशा को सही रूप से निर्धारित कर सकता है।
भारत में इतिहास के पुनर्लेखन पर समय-समय पर बहस होती रही है। कुछ लोग मानते हैं कि इतिहास को पुनः लिखने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि पूर्व में लिखे गए इतिहास में पक्षपात देखा जाता है, जबकि कुछ अन्य इसे एक राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित मानते हैं। किसी भी देश के इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक हो सकता है, लेकिन यह कार्य केवल अकादमिक अनुसंधान और तथ्यों के आधार पर होना चाहिए, न कि किसी विशेष विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए। इतिहास का उद्देश्य केवल अतीत का दस्तावेजीकरण नहीं, बल्कि समाज को सटीक और संतुलित जानकारी देना होना चाहिए, ताकि नागरिक विवेकपूर्ण निर्णय ले सकें और लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त कर सकें।
राणा सांगा भारतीय इतिहास में अदम्य साहस, सैन्य कौशल और राष्ट्रभक्ति के प्रतीक थे। उन्होंने न केवल राजपूतों को संगठित कर मुस्लिम आक्रमणकारियों का सामना किया, बल्कि भारत में हिंदू शक्ति के अंतिम सशक्त प्रहरी के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की। बाबर के खिलाफ उनका संघर्ष केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिता की लड़ाई थी। हालिया विवादों से स्पष्ट है कि इतिहास केवल अतीत का दस्तावेज नहीं, बल्कि समसामयिक राजनीति का भी विषय बन चुका है। आवश्यक है कि इतिहास को निष्पक्ष दृष्टिकोण से पढ़ा जाए, जिससे समाज में बौद्धिक चेतना और राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हो सके।

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