रिश्तों में संवाद नहीं, संदेह है : परिवारों में बढ़ती असहिष्णुता
डॉ. ज्योति सिडाना, समाजशास्त्री


परिवार किसी भी समाज की आधारभूत इकाई मानी जाती है जिसमें सदस्यों को भावनात्मक, आर्थिक, सामाजिक संरक्षण प्रदान किया जाता है, उन्हें सामाजिक प्राणी में परिवर्तित कर समाज का सक्रिय सदस्य बनने का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता रहा है। परन्तु क्या आज के तेजी से परिवर्तित होते समाज में भी परिवार की यही भूमिका है या उसमें कुछ बदलाव देखा जा रहा है। विकसित तकनीकी के दौर में पोस्टइमोशनल सोसायटी (उत्तर-भावनात्मक समाज) की अवधारणा ने उभार लिया है। समाज वैज्ञानिकों के अनुसार यह एक ऐसा समाज है, जहां भावनाएं तेजी से व्यवहार से अलग हो रही हैं और सामाजिक एकजुटता चुनौती प्राप्त कर रही है। वे तर्क देते हुए कहते हैं कि उत्तर-आधुनिकतावाद का ध्यान ज्ञान और सूचना पर केन्द्रित होने के कारण बड़े पैमाने पर औद्योगिक समाजों में भावनाओं की उपेक्षा हो रही है, सामाजिक सम्बन्धों में अलगाव और विखंडन की स्थितियां विकसित हुई हैं, जिसके परिणामस्वरूप उत्तर-भावनावाद’ की अवधारणा अस्तित्व में आई है, जहां भावनाओं के साथ छेड़छाड़ की जाती है और उन्हें विस्थापित किया जाता है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि औपचारिक सम्बन्धों में तो काफी समय से बदलाव देखे जा रहे थे लेकिन अब तो अनौपचारिक सम्बन्ध (जैसे परिवार, मित्र) भी चुनौती प्राप्त कर रहे हैं. फिर चाहे वे रक्त सम्बन्ध हों या विवाह सम्बन्ध. पिछले कुछ समय के समाचारपत्र इस तरह की घटनाओं के साक्षी हैं। जयपुर में एक कलयुगी पिता सालों से अपनी ही दोनों नाबालिग बेटियों का शारीरिक शोषण कर रहा था और तो और उसकी पत्नी यह सब देखते-जानते हुए भी सामाजिक बदनामी के डर से आंखे मूंद कर रह रही थी, लेकिन जब पेट में दर्द होने पर दोनों बच्चियों को उनकी मां डॉक्टर के पास लेकर पहुंची तब इस घटना का खुलासा हुआ और बच्चियों से रेप की पुष्टि होने के बाद डॉक्टर ने एनजीओ के माध्यम से पुलिस को सूचित किया। इसी तरह की एक और घटना सिरोही जिले में घटी जहां एक महिला जिस पर उसके पांच बच्चों की जिम्मेदारी थी, रोजाना मजदूरी पर जाती है और घटना के दिन घर पर मौजूद उसके पति ने अपनी ही आठ वर्षीय बेटी के साथ आपत्तिजनक हरकत की। यह तो केवल कुछ घटनाएं हैं ऐसी कितनी ही घटनाओं से प्रतिदिन के समाचार पत्र भरे रहते हैं और कुछ घटनाएँ तो सामाजिक बदनामी के डर से सामने ही नहीं आ पाती। एक और खबर के अनुसार गुरुग्राम में एक पिता ने अपनी 25 साल की राष्ट्रीय स्तर की टेनिस खिलाड़ी बेटी की गोली मारकर हत्या कर दी। चोट लगने के कारण खेलने में असमर्थ हो जाने के बाद से उसने टेनिस एकेडमी खोली, जिसे लेकर पिता-पुत्री में विवाद था क्योंकि लोगों के ताने सुनकर कि बेटी की कमाई खा रहे हैं वह नाराज था। साथ ही एक गाने का विडियो शूट करने के कारण भी दोनों में विवाद था। सोचने का विषय यह है कि क्या यह परिवार की समाप्ति का संकेत है या भावनात्मक-निकटता के सम्बन्धों को चुनौती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बाजारवाद में लाभ सर्वोपरि होता है लेकिन ऐसा लाभ कि सामाजिक सम्बन्ध विशेष रूप से भावनात्मक निकटता के सम्बन्ध भी लाभ की वस्तु में परिवर्तित हो जाए, अनेक सवालों को खड़ा करता है। परिवार से कब भावनात्मकता, विश्वास, प्रेम, सहनशीलता और त्याग जैसी भावनाएं गायब हो गई समझ ही नहीं आया। आधुनिक समाज में इस तरह के परिवर्तन समाज में बढ़ते व्यक्तिवाद को दर्शाते हैं। क्या अब परिवार के सदस्यों की मनोवैज्ञानिक और निजी जरूरतों को पूरा करने के लिए परिवार कम महत्त्वपूर्ण हो गया।
संवाद खत्म तो समाज खत्म. संभवत: आज के दौर में यही हो भी रहा है. समाज में संवादहीनता और भावनाशून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी है. अधिकांश लोग एक आभासी दुनिया में वास्तविक रिश्तों को तलाश रहे हैं और वास्तविक रिश्ते हाशिए पर जा रहे हैं।
कानपुर में 12वीं के स्टूडेंट ने अपनी मां की हत्या कर उनकी लाश को बेड में भर दिया सिर्फ इसलिए क्योंकि उसकी मां ने उसे बर्तन साफ करने को कहा था। हरियाणा के पंचकूला में कर्ज में डूबे एक परिवार के सात लोगों ने कार में जहर खाकर आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट में लिखा कि मैं नहीं चाहता कि मेरे बाद मेरे बच्चों को परेशान किया जाए। यह किस तरह की सामाजिक संस्था है जो परिवार के सदस्यों को सुरक्षा और संरक्षण देने के बजाय उनके अस्तित्व को ही समाप्त करने में लगी है। इतनी असहनशीलता परिवारों में क्यों और कब प्रवेश कर गई यह चिंतन का विषय है। परिवार संस्था में अनेक बदलाव उभर कर आए हैं जैसे विवाह विच्छेद की दर में वृद्धि, एकल अभिभावककीय परिवार का उदय, नातेदारी संरचना में बिखराव, कार्यशील महिलाओं की संख्या में तीव्र वृद्धि के फलस्वरूप परिवार के स्वरूप में उत्पन्न हुए बदलाव, सहजीवन (विवाह के बिना यौनिक संबंध निर्मित करना एवं साथ साथ रहना), समलैंगिक परिवार, अविवाहित रहने का निर्णय एवं विलंब विवाह ऐसे बदलाव है जो परिवार के पारंपरिक स्वरूप तथा परिवार एवं विवाह के मध्य संबंधों में गुणात्मक बदलाव के सूचक हैं।
परिवारों में साइलेंट डिवोर्स की घटनाएं भी उभरने लगी हैं। यह ऐसी स्थिति है जब पति-पत्नी या पार्टनर्स के बीच इमोशनल जुड़ाव खत्म हो जाता है लेकिन वे सामाजिक, आर्थिक कारणों से या बच्चों की वजह से साथ रह रहे होते हैं। यह रिश्ता बाहर से बिल्कुल सामान्य लगता है लेकिन वास्तव में वे पृथकतावादी जीवन जी रहे होते हैं। इन सब पक्षों पर गौर करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान परिवार संस्था गंभीर चुनौती का सामना कर रही है। सामान्यत: परिवार के टूटने या बिखरने के लिए महिला सदस्य को ही जिम्मेदार माना जाता रहा है कि परिवार को एकजुट रखना महिला की ही जिम्मेदारी होती है। परन्तु आज के बदलते दौर में जब महिला भी एक आर्थिक इकाई के रूप में सार्वजानिक स्पेस का हिस्सा हैं तो केवल और केवल एक सदस्य पर दोहरा दायित्व डालना या फिर आवश्यकता से अधिक अपेक्षा करना रिश्तों में दरार का महत्त्वपूर्ण कारण बन सकता है। रिश्तों में अहम की भावना, दूसरे साथी को नीचा दिखने की प्रवृत्ति, बात-बात पर तंज कसना, हर काम में गलतियां निकलना या उसे केवल एक शरीर के रूप में देखना भी परिवारों में बिखराव का कारण बनता जा रहा है. परिवार संस्था को बचाने के लिए गहन चिंतन की जरुरत है यानी पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति समझ और सम्मान विकसित करे, महिला सदस्य को भी बराबरी का हक मिले और यह हक केवल कानूनी किताबों में ही नहीं हो जैसा कि अभी है अपितु वास्तविक जीवन में क्रियान्वित हो सके। समाज में क्रोध, आक्रामकता, हिंसा, अपराध, असुरक्षा, अविश्वास, तनाव और निराशा में वृद्धि परिवार के बिखराव का ही परिणाम है इसलिए जरूरी है कि इस मूलभूत संस्था को मजबूती देने की दिशा में सामूहिक कदम बढ़ाए जाएं।
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