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हरित ऊर्जा की ओर कदम, लेकिन खाद्य सुरक्षा को खतरा क्यों?

डॉ. अजीत रानाडे, वरिष्ठ अर्थशास्त्री (द बिलियन प्रेस)

जयपुरJul 10, 2025 / 03:22 pm

Sanjeev Mathur

भारत की निरंतर आर्थिक वृद्धि ऊर्जा खपत की समानांतर और स्थिर वृद्धि के बिना संभव नहीं है। अगले दो दशकों तक भारत की ऊर्जा जरूरतें सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के समानांतर बढ़ेंगी। हमें घरेलू उपयोग, फैक्ट्रियों और कार्यालयों के लिए बिजली और परिवहन के लिए ईंधन बढ़ाने की लगातार आवश्यकता होगी। भारत में तीन-चौथाई बिजली कोयले से और शेष सौर, पवन, जलविद्युत, परमाणु और बायोमास जैसे नवीकरणीय स्रोतों से पैदा होती है। हालांकि नवीकरणीय ऊर्जा की स्थापित क्षमता कुल का लगभग 50 प्रतिशत तक पहुंच गई है, लेकिन उत्पादन 25 प्रतिशत है। भारत के पास कोयले का दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा भंडार है, फिर भी उसे अपनी जरूरत का पांचवां हिस्सा विदेशों से आयात करना पड़ता है, जिस पर हर साल लगभग 20 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा लगती है। परिवहन क्षेत्र में विदेशी निर्भरता और भी अधिक है। भारत में खपत होने वाला 90 प्रतिशत कच्चा तेल आयात किया जाता है, जो पिछले साल 242 मिलियन टन रहा। वैश्विक तेल कीमतों के अनुसार (65 से 85 डॉलर प्रति बैरल), यह देश की विदेशी मुद्रा पर 125 से 150 अरब डॉलर का बोझ डालता है। बढ़ती कीमतों के साथ यह बोझ और बढ़ जाता है। राहत की बात यह है कि भारत से पेट्रोल और डीजल का निर्यात कच्चे तेल के आयात की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। पिछले साल भारत ने 65 मिलियन टन पेट्रोल और डीजल निर्यात किया, जिससे अच्छा लाभ हुआ। आने वाले वर्षों में भारत की घरेलू शोधन क्षमता 20 फीसदी बढ़कर 310 मिलियन टन से अधिक हो जाएगी। यह वृद्धि घरेलू जरूरतों की तुलना में तेज है, जिससे अधिक निर्यात आय होगी।
भारत ने पेट्रोल और डीजल में इथेनॉल मिलाने की एक महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की, जिससे कार्बन उत्सर्जन भी घटे और विदेशी मुद्रा की बचत भी हो। इथेनॉल गन्ना, मक्का, चावल और दोहरे स्रोतों से तैयार किया जाता है। 2013 में यह योजना केवल 1.5 प्रतिशत मिश्रण से शुरू हुई थी और इस वर्ष 20 प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। इथेनॉल मिश्रण कार्यक्रम को विशेष सब्सिडी, कम जीएसटी दर और सस्ती ब्याज दरों पर ऋण जैसी सुविधाओं से समर्थन मिला है। इससे भारत इथेनॉल उत्पादन तकनीक में वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर हुआ है। इस कार्यक्रम के तहत तेल विपणन कंपनियों को एक तय मात्रा तक इथेनॉल खरीदना अनिवार्य है। वर्तमान में देश में 1,810 करोड़ लीटर की इथेनॉल उत्पादन क्षमता है, जिसमें 816 करोड़ लीटर गन्ना/शीरा आधारित, 136 करोड़ लीटर द्वैध स्रोतों पर आधारित और 858 करोड़ लीटर अनाज-आधारित उत्पादन क्षमता है। समय आ गया है कि हम इस योजना की समग्र समीक्षा करें। इस योजना के चार मुख्य उद्देश्य हैं-कच्चे तेल पर आयात निर्भरता कम करना, विदेशी मुद्रा की बचत करना, कार्बन उत्सर्जन घटाना और कृषि उत्पादन को प्रोत्साहन देना। जब 20 प्रतिशत मिश्रण का लक्ष्य हासिल हो चुका है तो यह देखना जरूरी है कि क्या ये उद्देश्य वास्तव में पूरे हो रहे हैं? सरकारी आंकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्षों में कच्चे तेल के आयात में 1.8 करोड़ टन की बचत हुई है, जो कुल आयात का महज 0.8त्न है। लगभग 1.06 लाख करोड़ रुपए (करीब 10 अरब डॉलर) विदेशी मुद्रा की बचत हुई है, जो कुल व्यय का 0.5त्न से भी कम है। कार्बन उत्सर्जन में 10 वर्षों में 5.4 करोड़ टन की कटौती हुई है, जो कुल उत्सर्जन का एक प्रतिशत भी नहीं है।
मक्का और चावल जैसे अनाज इथेनॉल उत्पादन में जाने से पोल्ट्री फीड उद्योग को नुकसान हो रहा है। उत्पादन की कमी और लागत बढऩे से भारत मक्का के निर्यातक से आयातक बन गया है। इससे खाद्य मुद्रास्फीति की आशंका भी बढ़ती है, जिसके चलते चीनी और चावल जैसे आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर तात्कालिक और मनमाने प्रतिबंध लगाए जाते हैं। पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क व अन्य कर लगभग 50 प्रतिशत से अधिक हैं, जबकि इथेनॉल पर कर बोझ नाममात्र है। क्या कर ढांचे को इस तरह से युक्तिसंगत बनाया जा सकता है कि पेट्रोल व इथेनॉल, दोनों के बीच राजकोषीय भार समान हो? 20 प्रतिशत मिश्रण के महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंचकर यह आवश्यक है कि हम योजना की समग्र समीक्षा करें, जिसके कई उद्देश्य हैं, जटिल प्रोत्साहन तंत्र हैं, खाद्य सुरक्षा, मुद्रास्फीति और सरकारी खर्च पर प्रभाव जैसे अनजाने दुष्परिणाम हैं।

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