संपादकीय : नेतृत्व के अवसर मिले बिना शिक्षा का सच अधूरा
भारत में भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के तहत न केवल स्कूली स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में सुधार हुआ है बल्कि उच्च शिक्षा में भी उनकी भागीदारी 49 फीसदी तक पहुंच गई है।


यूनेस्को की वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट पर गौर करें तो शैक्षणिक प्रगति के लिहाज से इसे उल्लेखनीय उपलब्धि कहा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियों की शैक्षणिक उपलब्धियां वैश्विक स्त पर बढ़ रही है। भारत में भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के तहत न केवल स्कूली स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में सुधार हुआ है बल्कि उच्च शिक्षा में भी उनकी भागीदारी 49 फीसदी तक पहुंच गई है। इसके उलट जब बात नेतृत्व की आती है तो चाहे कॉरपोरेट क्षेत्र हो या फिर राजनीति का क्षेत्र महिलाएं पीछे छूटती नजर आती हैं। केवल 7.2 प्रतिशत भारतीय कंपनियों में सीईओ महिलाएं हैं, वहीं संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी 14 प्रतिशत से कम है।
लैंगिक विषमता का यह दौर केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। विश्व बैंक की वर्ष 2024 की रिपोर्ट बताती है वैश्विक स्तर पर भी शीर्ष नेतृत्वकारी पदों में केवल 10 प्रतिशत पर ही महिलाएं हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पढ़ाई-लिखाई में उत्कृष्टता के बावजूद महिलाएं नेतृत्व की भूमिकाओं में क्यों पीछे रह जाती हैं? और तो और, मेघालय जैसे मातृसत्तात्मक समाज के जिन समुदायों में संपत्ति और वंशानुक्रम मातृसत्तात्मक है वहां भी घरेलू और पारिवारिक निर्णयों में अग्रणी रहने के बावजूद महिलाएं राजनीति और सार्वजनिक नेतृत्व में भागीदार नहीं हो पाती। मेघालय विधानसभा में 60 सीटों में से केवल 3-4 महिलाएं ही निर्वाचित होती हैं। सवाल यह भी कि क्या यह जानबूझकर किया गया दमन है, या महिलाएं स्वयं नेतृत्व से दूर रहती हैं? सच्चाई इन दोनों के बीच है। सामाजिक संरचनाएं, जैसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव, और कार्यस्थल पर असमान अवसर, महिलाओं को आगे बढने से रोकते हैं। अवसर मिल भी जाएं तो कई मामलों में महिलाएं राजनीति में प्रवेश से हिचकिचाती हैं, क्योंकि इसमें जोखिम, सार्वजनिक आलोचना और हिंसा का डर शामिल रहता है। देखा जाए तो महिलाओं को नेतृत्व के लिए आगे करने के लिए व्यापक बदलाव जरूरी है। सबसे पहले शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाकर लैंगिक रूढिय़ों को तोडऩा होगा। कार्यस्थल पर भी लैंगिक समानता को बढ़ावा देना होगा। और, सबसे बड़ी बात यह है कि लोकतंत्र के सभी स्तरों पर राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण को प्रभावी ढंग से लागू करना होगा। पंचायत राज व निकायों में आरक्षण के बाद आए बदलाव को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
सच तो यही है कि लड़कियों की शैक्षिक प्रगति एक सकारात्मक कदम है, लेकिन नेतृत्व में उनकी कम भागीदारी केवल अवसरों की कमी नहीं, बल्कि सदियों पुरानी मानसिकता और संरचनात्मक बाधाओं का परिणाम है। समाज को यह समझना होगा कि महिलाओं का नेतृत्व न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे समाज के विकास के लिए जरूरी है। पढ़ाई में लड़कियों की उपलब्धियां उनके नेतृत्व की सीढ़ी तक पहुंचने तक अधूरी ही रहेंगी।
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