भारत के लिये यह अमृत-पर्व है। ऐसा अमृत-पर्व जो हमारी जातीय चेतना, सांस्कृतिक बोध तथा विश्व कल्याण की भावना का असाधारण प्रतिफलन है। भारत तीर्थों की भूमि है। इसके प्रत्येक अञ्चल में पुण्यकथायें हैं, जो मनुष्यता को पापबोध से उबारती हैं। गंगा-यमुना की दिव्य धाराओं के मध्य बसा एक नगर तीर्थों के राजा के रूप में प्रतिष्ठित है, इसे प्रयागराज कहा जाता है। संगम को सिंहासन और अक्षयवट को छत्र के रूप में धारण किये हुये तीर्थराज प्रयाग की महिमा माघ महीने में अपूर्व हो जाती है। धर्मशास्त्र कहते हैं कि माघ महीने में जब सूर्य मकर राशि में और गुरु मेष राशि में होते हैं तब जो अमावस्या आती वह अमृत-योग को प्रकट करती है। अमृत जीवन की सबसे बड़ी लालसा है, महाकुम्भ उसी अमृताभिलाषा के लिये भारतीय ऋषि-परम्परा की आश्वस्ति है। असंख्य पीढ़ियों से इस देश की श्रद्धा-भक्ति माघ में संगम-स्नान, कल्पवास और विविध धार्मिक अनुष्ठान की योजना करती आयी है।
कथा-कहानियों, तथा रीतियों और विश्वासों में निहित भारतीयता अपनी सांस्कृतिक चेतना को धर्म से परिष्कृत करती है। महाकुम्भ का विराट् सांस्कृतिक समारोह भी उसी धर्मानुरोध से प्रबन्धित होता है। हमारे आधुनिकता-बोध के वर्तमान संस्करण से युगों पहले इस देश ने अमृत पदार्थ का विचार किया था, अमृत पाने का यत्न किया था। उसी यत्न के रूप में महासागर का मन्थन किया गया। रत्नाकर कहे जाने उस समुद्र के मन्थन से चौदह रत्न प्राप्त हुये। लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात वृक्ष, ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा तथा कामधेनु आदि का अविर्भाव प्रसिद्ध है। उसी से विष और अमृत का जन्म हुआ। विष की ज्वाला से जगत् को बचाने के लिये भगवान् शिव ने अनुग्रह किया और सारा विष उन्होंने अकेले पीकर जगत् की रक्षा की। वे नीलकण्ठ कहलाये और उनकी इस कृपा से कृतज्ञ विश्व उन्हें मृत्युञ्जय कहकर पूजता है। परन्तु, अमृत पीने को लेकर सहमति नहीं बन सकी भगवान् धन्वन्तरि ने अमृत का कलश समुद्र-मन्थन के प्रमुख देवराज इन्द्र को सौंपा, जिसे असुर छीनकर ले भागे। अमृत के लिये संघर्ष हुआ, जिसका समाधान भगवान् ने मोहिनी रूप धारण करके किया। पर उस संघर्ष के कारण अमृत कलश की बूँदें छलक कर धरती पर आयीं और भूलोक के जीवों को भी अमृत का प्रभाव सुलभ हुआ। कथा यह भी है कि अमृत घट की रक्षा के लिये उसे इन्द्रपुत्र जयन्त ने कुल बारह स्थानों पर रखा। इन स्थानों में आठ स्वर्ग के अन्तर्गत हैं, जबकि चार स्थान धरती के हैं, जहाँ अमृत का संसर्ग होने से महाकुम्भ पर्व प्रकट हो गया। महाकुम्भ अर्थात् मर्त्यलोक का अमृत-पर्व।
ध्यान से देखने पर इतिहास-पुराण का यह सन्दर्भ मानव-चेतना के अमृत-शोध का भी रहस्य खोलता है। हमारी पूर्वज परम्परा में जीवन-समुद्र को मथा गया है। जीवन के अनेक आयामों में अमृत की पहचान हुई है और उस पहचाने हुये अमृत को सुरक्षित करने तथा आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने के उपाय किये गये हैं। ब्रह्मचारी के लिये गुरु का उपदेश अमृत है, गृहस्थ के लिये देवताओं-पितरों-अतिथि को खिलाने से बचा हुआ भोजन अमृत है। साधक के लिये अयाचित भिक्षा अमृत है और आयुर्वेद के लिये गाय का दूध अमृत है। यही अमृत-विचार हम भारतीयों को अनादिकाल से एकत्र होने, परस्पर संवाद करने और अपनी समेकित जीवन-पद्धति से अपने प्रश्नों के समाधान ढूँढने के लिये आमन्त्रित करता है।
महाकुम्भ पर्व भारत के पुरूषार्थ-विमर्श का वैश्विक आयोजन है। इसमें लोक पितामह ब्रह्मा, धर्मराज युधिष्ठिर, आदि शंकराचार्य, सम्राट् हर्षवर्धन समेत जीवन के विविध आयामों की विभूतियों का इतिहास गुम्फित है। भारत की सन्त-परम्परा, विद्वत्परम्परा, समस्त वर्ग-वर्ण का बृहत्तर समाज आबाल-वृद्ध नर-नारी के रूप में सब इस महाकुम्भ में सम्मिलित होते हैं। भूल-चूक से हुये पापों के प्रायश्चित्त एवं आगे पाप न करने की प्रतिज्ञा का असाधारण अनुष्ठान है महाकुम्भ। त्रिवेणी के संगम पर कल्पवास, संगम में स्नान, यथाशक्ति दान, भगवान् वेणी माधव, अक्षय वट और नाग वासुकि का दर्शन, सन्तों के प्रवचन-उपदेश आदि के द्वारा देश भर से प्रयाग आया हुआ समाज स्वयं को अपने सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों में प्रतिष्ठित करता है। यह अवसर भारत को अपने परम्परा-प्राप्त आश्रमों, व्यवस्थाओं, संस्थाओं, उपासनाओं, तथा भिन्न-भिन्न विश्वासों को मुखामुख करता है और इस प्रकार उनमें निहित एकता को उद्भासित करता है।
यह देखना रोचक है कि धर्मप्राण भारत देश ने धार्मिक आस्था भाव के बल पर विश्व का सबसे बड़ा आयोजन तीर्थराज प्रयाग की भूमि पर करते हुये स्वानुशासन, संगठन और सेवा का अद्वितीय प्रकल्प रचा है। पुरातन भारत से अधुनातन भारत तक प्रवाहित आस्था की धारा में सनातनता कैसे अक्षुण्ण रहती है , महाकुम्भ का आयोजन इसका प्रमाण है। मानवता की अमूर्त्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में परिभाषित करते हुये यूनेस्को ने महाकुम्भ के वैश्विक महत्त्व को स्थापित किया है। यह हर्ष और गौरव का विषय है कि धर्म निरपेक्षता का दम्भ करती दुनिया के सम्मुख धरती का सबसे बड़ा आयोजन करने का श्रेय सनातन सनातन धर्म के नाम है। विश्वास-विचार, सभ्यता-संस्कार, हाट-बाजार और सद्भाव-सहकार का अद्वितीय उपक्रम महाकुम्भ हमारी धार्मिकता, सहकारिता और पारम्परिक निष्ठा का उदाहरण तो है ही यह हमारी सनातन उत्सव धर्मिता का भी प्रमाण है। माघ के अत्यधिक ठण्ढे मौसम में करोड़ों स्त्री-पुरुष और बच्चे उत्साह से भरे हुये पवित्र नदी के जल में स्नान करने को एकत्र होते हैं यह हमारी धार्मिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है। यह भी धर्म की सहज योजना का प्रतिफल है कि एक सीमित भूभाग में एक महीने की महाकुम्भ योजना के माध्यम से अरबों रुपये की अर्थव्यवस्था, हजारों-हजार लोगों की आजीविका, असंख्य युवकों के लिये कार्य-कौशल के अवसर तथा विभिन्न उत्पाद-शिल्प और कलाओं के लिये सम्भावना ने नये द्वार खुलेंगे।
महाकुम्भ भारत की समावेशी जीवन-पद्धति की वैश्विक प्रयोगशाला है। इसमें धर्म-अध्यात्म, संस्कार-बाजार तथा लोक मंगल के अन्य अनेक आयाम न केवल स्वयं को व्यक्त करते हैं बल्कि अपनी परस्परता को पहचानते और संवाद शीलता को बढ़ावा देते हैं। यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि भारत के केन्द्रीय शासन तथा उत्तर प्रदेश सरकार के साथ ही देश के विभिन्न राज्यों की सरकारें और उनके नागरिक अपनी सार्थक भूमिकाओं से इस अमृत पर्व में जुड़ रहे हैं। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने महाकुम्भ क्षेत्र में जाकर वहाँ पूजन-आराधन करते हुये पाँच हजार करोड़ से भी अधिक की परियोजनाओं के साथ केवल इस आयोजन को प्रोत्साहित ही नहीं किया बल्कि उन्होंने सनातन धर्म के द्वारा सम्भव राष्ट्रीय एकता के आयाम को भी विश्व के सम्मुख प्रकट किया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की महाकुम्भ के लिये प्रतिबद्धता असाधारण है। एक मुख्यमन्त्री के रूप में वे जो व्यवस्थायें निर्मित कर रहे हैं, उससे कहीं बढ़कर एक योगी के रूप में महाकुम्भ को उसकी आध्यात्मिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जोड़ रहे हैं। प्रयागराज में आयोजित 2025 का महाकुम्भ पर्व आधुनिक विश्व में भारत की सर्वतोमुखी रचनात्मकता, सर्वमंगलकारिता और सार्वभौमिकता के प्रमाण के रूप में स्मरणीय रहेगा।