अदालतों ने लगातार अपने फैसले में स्थापित किया है कि ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ के सिद्धांत उन मामलों में लागू किया जाता है जब अपराध की प्रकृति असाधारण क्रूरता और जघन्य होती है और सामाजिक चरित्र की नैतिक अच्छाई को झटका लगता है। निर्भया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि जब किसी अपराध को निहायत बर्बर तरीके से अंजाम दिया जाता है और समाज की सामूहिक चेतना को धक्का लगता है तो ऐसे अपराध में मौत की सजा होनी चाहिए। इस मानक से आरजी कर मामला मौत की सजा की तरफ इशारा कर रहा है। दोषी संजय रॉय एक पुलिस-वॉलेंटियर था, उसे सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसने अपनी स्थिति की दुरुपयोग अपराध करने में किया। उसने न केवल पीडि़ता के विश्वास बल्कि बड़े पैमाने पर समाज के विश्वास को भी तोड़ा। यह विश्वास भंग अपराध की क्रूरता को और बढ़ा देता है। पूरे देश में महिला पेशेवरों में डर उत्पन्न करता है। पूरे देश में हुए प्रदर्शनों में मेडिकल प्रोफेशनल्स ने भी न्याय और कार्यस्थल पर सुरक्षा मानकों को कड़े करने की आवाज उठाई। जनआक्रोश ने अपराध के गहरे सामाजिक प्रभाव को रेखांकित किया।
न्यायपालिका जनसमूह पर गंभीर और भावनात्मक आघात को संबोधित करने में अहम भूमिका निभाती है। इस मामले में मौत की सजा देने से पीडि़त परिवार और समाज को संतोषजनक भावना महसूस होती। उधर, मृत्युदंड की स्थितियों को लेकर बहस जारी है। इस प्रकृति के अपराधों में इसके व्यावहारिक असर को कम करके आंका नहीं जा सकता है। ऐसे अपराध व्यापक रूप से भय का माहौल उत्पन्न करते हैं, खासकर महिलाओं में। सुप्रीम कोर्ट ने अक्सर अपने फैसलों में प्रतिरोध नीति की आवश्यकता पर जोर दिया है। कोर्ट ने धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1994) में, समाज को मजबूत संदेश भेजने की जरूरत का हवाला देते हुए, एक 18 वर्षीय लडक़ी के साथ बलात्कार-हत्या मामले में मौत की सजा को बरकरार रखा था। आरजी कर मामला ऐसी ही प्रतिक्रिया देने से कम नहीं है। सत्र न्यायालय ने आरजी कर मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर निर्भरता का हवाला देते हुए मौत की सजा देने से परहेज किया है। यद्यपि, परिस्थितिजन्य साक्ष्य अभी भी उचित संदेह से परे अपराध साबित करने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं। इसके कई उदाहरण भी हैं।
‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ सिद्धांत, जिसे बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) मामले में स्थापित किया गया था, भारत में मृत्युदंड के लिए मार्गदर्शक है। यह सिद्धांत केवल उन मामलों में मौत की सजा देने पर जोर देता है, जहां अपराध क्रूर, अमानवीय और समाज को झकझोर देने वाला हो। कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज का केस इस सिद्धांत पर खरा उतरता है। यह घटना संस्थागत सुरक्षा उपायों की विफलता का प्रतीक है। वहीं, केरल का शेरोन राज मर्डर केस, जो व्यक्तिगत उद्देश्यों से प्रेरित था, के मुकाबले आरजी कर केस ने देशभर में महिला पेशेवरों के बीच असुरक्षा और भय की भावना को जन्म दिया है। कार्यस्थल पर हुई क्रूरता इस कृत्य को ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ सिद्धांत के तहत कड़ी सजा देने के लिए पर्याप्त कारण प्रस्तुत करती है। दूसरी ओर, शेरोन राज मर्डर केस में ग्रीष्मा एस.एस. को मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह सजा उचित है। ग्रीष्मा ने सोच-समझकर अपने कृत्य को अंजाम दिया, लेकिन उसके पीछे भावनात्मक उथल-पुथल, अपरिपक्वता या फिर कठिन परिस्थितियों से बचने की हताशा हो सकती है। उसका कृत्य एक त्रुटिपूर्ण मानवीय विचार को दर्शाता है। भावनात्मक दृष्टिकोण से, समाज युवा अपराधियों को पुनर्वास के रूप में देखता है। शेरोन के परिवार को अपूरणीय क्षति हुई है, लेकिन ग्रीष्मा को जीवन भर पश्चाताप करने का अवसर देना अधिक मानवीय दृष्टिकोण हो सकता है।
ट्रायल कोर्ट ने कोलकाता पुलिस और आरजी कर अस्पताल प्रशासन की खामियों पर आलोचना की, लेकिन मृत्युदंड की सजा नहीं दी। अदालत ने कहा कि सजा के मामले में ‘आंख के बदले आंख’ जैसे आदिम विचारों से ऊपर उठकर साक्ष्य पर आधारित निर्णय लिया जाना चाहिए, न कि सार्वजनिक भावनाओं के आधार पर। न्याय का कर्तव्य साक्ष्य पर आधारित होना चाहिए।