Patrika Key Note: पत्रिका समूह के संस्थापक श्रद्धेय कर्पूर चन्द्र कुलिश की जन्मशती वर्ष के तहत रविवार, 20 अप्रैल को रायपुर की होटल बेबीलॉन केपिटल में पत्रिका की-नोट का आयोजन किया गया। पत्रिका की-नोट सामाजिक मुद्दों पर गहन चिंतन की शृंखला है, जो देशभर में आयोजित की जाती है।
इस बार के संवाद कार्यक्रम का विषय रहा- नए दौर की भागदौड़ में पीछे छूटते भारतीयता के संस्कार…। जिसमें अतिथि वक्ता के रूप में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी, आईआईएम रायपुर के डायरेक्टर रामकुमार काकानी, सामाजिक कार्यकर्ता पद्मश्री फूलबासन देवी और यंग एंटरप्रेन्योर अपूर्वा त्रिवेदी ने संबोधित किया। कार्य₹म का संचालन गौरव गिरिजा शुक्ला ने किया। की-नोट में शहर के हर वर्ग से चिंतक बुद्धिजीवी जुटे।
भारतीयता के मूल संस्कारों, सामाजिक बदलाव और पीढ़ियों के बीच बनती खाई को गहराई से समझने का आह्वान किया। काकानी ने कहा कि हर पीढ़ी खुद को पिछली पीढ़ी से ज्यादा बुद्धिमान और अगली से ज्यादा समझदार मानती है। यह केवल फैशन या संगीत का अंतर नहीं है, बल्कि जीवन दृष्टिकोण का फर्क है। उन्होंने स्पष्ट किया कि आज की युवा पीढ़ी लगातार विज्ञापनों, सोशल मीडिया और पश्चिमी प्रभावों के दबाव में जी रही है।
उन्होंने कहा, हमारे समय में इतना शोर नहीं था, न मोबाइल था, न ही 24 गुणा 7। संयुक्त परिवार की संरचना टूट रही है। युवाओं के लिए यह तकनीक वरदान भी है और कभी-कभी चुनौती भी। कपिल देव के उस बयान का संदर्भ देते हुए, जिसमें उन्होंने डिप्रेशन को ‘अमरीकन शब्द’ कहा था, प्रो. काकानी ने सवाल उठाया क्या हम पीढ़ियों के बीच की खाई को सही से समझ भी रहे हैं? उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस दूरी को केवल आलोचना से नहीं, संवाद से पाटा जा सकता है।
Patrika Key Note: पीढ़ियों के बीच टूट रहा संवाद…
आज की पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच संवाद टूट रहा है। बच्चे तनाव में हैं, लेकिन उनके पास सुनने वाला कोई नहीं। उन्होंने बताया कि सोशल मीडिया के कारण भावनात्मक दूरियां बढ़ गई हैं। एक युवक रिश्ते टूटने से इतना टूटा कि अपने ही मां-बाप से बात नहीं कर सका, यह सोचकर कि वे उसे समझ पाएंगे या नहीं। उन्होंने सुझाव दिया, डिजिटल डिवाइसेज से दूर जाकर अकेले टहलें, पंचतंत्र और पुराणों को फिर से पढ़े, तभी दो पीढ़ियों की खाई पाटी जा सकेगी।
पीढ़ियों के बीच बदलाव चुनौती
आईआईएम डायरेक्टर प्रो. रामकुमार काकानी ने कहा की आपाधापी भरी जिंदगी में दो पीढ़ियों के बीच क्वालिटी टाइम का अदान-प्रदान नहीं हो रहा है। इसके चलते उनके बीच समझने में बड़ा अंतर आने लगा है। जरूरी है कि बच्चों से बुजुर्गों तक संवाद होता रहे।
खेती महज आजीविका नहीं, भारत की आत्मा का प्रतिबिंब…
एनटरप्रेन्योर अपूर्वा त्रिपाठी ने कहा की खेती महज आजीविका का साधन नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का प्रतिबिंब है। दुर्भाग्यवश, आधुनिकता की दौड़ में यह सबसे पुराना संस्कार पीछे छूटता जा रहा है। तकनीकी शिक्षा और शहरी जीवनशैली ने खेत-खलिहानों की महक को किताबों से बाहर कर दिया है।
हालांकि, बस्तर इस परंपरा को अब भी सीने से लगाए हुए है। वहां खेती सिर्फ ज़मीन से जुड़ाव नहीं, संस्कृति और जीवन दर्शन का हिस्सा है। बस्तर की जीवनशैली में खेत, बीज, मौसम और मिट्टी के साथ आत्मीय संवाद होता है।
हक दिलाना भी संस्कार है
हम बस्तर क्षेत्र में रहकर वहां के आदिवासी समुदाय के लिए सतत कार्य कर रहे हैं। हमारा प्रयास है कि आदिवासियों के जीवन स्तर में ठोस सुधार आए, वे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मूलभूत अधिकारों से वंचित न रहें। समाज में समानता केवल नीतियों से नहीं आती, बल्कि एक-दूसरे के अधिकारों की लड़ाई में खड़े होने से आती है। दूसरों को उनका हक दिलाना भी एक तरह का संस्कार है।
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