आवश्यक सूत्र में इसे ‘नमो लोए सव्वसाहूणं’ कहा गया है, और एक पद्य जोड़ा गया-‘एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं,’ अर्थात् ये पांच नमस्कार पापों को नष्ट करने वाले और सभी मंगलों में प्रथम हैं। यह मंगल विन्यास आध्यात्मिक शुद्धि और शुभता का प्रतीक है।
प्रयोग ईसा पूर्व पहली शताब्दी के आसपास प्रचलित
ऐतिहासिक रूप से, मंगल विन्यास (Mangal Vinyas) का प्रयोग ईसा पूर्व पहली शताब्दी के आसपास प्रचलित हुआ। श्वेतांबर परंपरा में भगवती सूत्र को छोडक़र अन्य प्राचीन अंग-सूत्रों के आरंभ में मंगल विन्यास नहीं मिलता, लेकिन बाद के ग्रंथों जैसे आवश्यक सूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिण्डनिर्युक्ति में इसका प्रयोग हुआ। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार, प्राचीन आगम साहित्य में मंगल विन्यास की पद्धति नहीं थी। उत्तरकाल में यह परंपरा विकसित हुई, जब शिष्य पहले पंच नमस्कार करते थे, फिर आचार्य उनकी योग्यता के अनुसार सूत्रों की वाचना करते थे। आचार्य देवेंद्रमुनि कहते हैं कि आगम स्वयं मंगल स्वरूप हैं, इसलिए मंगलवाक्य अनिवार्य नहीं था। आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने ‘जयधवला टीका’ में लिखा कि आगम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि ध्यान से ही मंगल फल प्राप्त होता है।प्राचीनता है प्रमाणित
प्रज्ञापना में मंगल गाथाएं सिद्ध से शुरू होती हैं, जबकि पंचनमस्कार में अर्हंत पहले हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष उपकारी हैं। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के हाथीगुम्फा शिलालेख में ‘नमो अरहतानं, नमो सव्व सिधानं’ अंकित है, जो इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करता है। दिगंबर परंपरा में धवला के अनुसार, यह आचार्य पुष्पदंत की रचना है, जहां ‘णमो अरहंताणं’प्रयोग हुआ।अंत में, नमस्कार महामंत्र इस प्रकार है:
णमो अरहंताणंणमो सिद्धाणं
णमो आयरियाणं
णमो उवज्झायाणं
णमो सव्वसाहूणं
यह मंगल विन्यास जीवन में शांति और कल्याण का आधार है।-
डॉ. महावीर राज गेलड़ा
संस्थापक कुलपति
जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट लाडनूं