scriptWorld Television Day 2024: ‘टीवी’ के लिए हमारी इतनी पिटाई हुई कि हम खुद दूरदर्शन बन गए और सारा स्कूल दर्शक | Atul Rai Sahitya Akademi Award: We were beaten so much for 'TV' that we ourselves became Doordarshan and the whole school became the audience | Patrika News
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World Television Day 2024: ‘टीवी’ के लिए हमारी इतनी पिटाई हुई कि हम खुद दूरदर्शन बन गए और सारा स्कूल दर्शक

World Television Day 2024: आज अंतरराष्ट्रीय टेलीविजन दिवस है। इस अवसर पर उपन्यासकार और पटकथा लेखक अतुल कुमार राय ने पत्रिका के लिए विशेष लेख लिखा है। अतुल को उनके उपन्यास चांदपुर की चंदा के के लिए साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी भाषा की रचनाओं के लिए 2023 युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वे 2022 की फिल्म शेरदिल: द पीलीभीत सागा के संवाद लेखक भी हैं।

मुंबईNov 21, 2024 / 07:58 pm

Saurabh Mall

Atul Rai Sahitya Akademi Award

Atul Rai Sahitya Akademi Award

Atul Rai: पहले शाकालाका बूम-बूम की पेंसिल से टीवी बनाने की लाख कोशिश कर चुके थे। शक्तिमान से भी कहा था कि क्या वो एक टीवी नही दे सकता। और चूंकि उस उम्र में गांव के लोकल देवताओं पर ज्यादा भरोसा नहीं था लेकिन उनसे भी तमाम मनौतियाँ की गई थीं कि हे मशान बाबा, एक टीवी का आशीर्वाद देने से आप छोटे नहीं हो जाएंगे। मोहल्ले में सबके घर तो है, बस हमारे घर टीवी न होने के कारण हमें बहुत कष्ट झेलना पड़ रहा है।

टीवी की ब्रेकिंग न्यूज़ पूरे गांव भर में फैल गई

आखिरकार मसान बाबा ने सुन लिया और घर वालों ने एक सुबह घोषणा कर दिया कि चाहें हिमालय में आग लगे या बंगाल की खाड़ी में पत्थर परे। आज तो टीवी आकर रहेगी।
देखते-देखते ही ये ब्रेकिंग न्यूज पूरे गाँव भर में फैल गई। हमारे चेहरे पर रंगोली और चित्रहार दोनों एक साथ उभर आए..घर वालों ने कहा, आज स्कूल मत जावो। पापा के साथ एक आदमी एक्स्ट्रा तो चाहिए न।
उस दिन सुबह नहा धोकर हम तैयार थे। इतना उत्साह और उमंग तो हमें सिर्फ मेला देखने के नाम पर ही आता था।

अंततः टीवी की दुकान आ गई…एक घण्टे की माथापच्ची के बाद ब्रांड और साइज दोनों डिसाइड हो गया। दुकानदार ने गारंटी कार्ड बढ़ाया। और अंततः हमें एक छोटे से कॉटन बॉक्स के दर्शन हुए.. पता चला कि इसको रिक्शे से घर तक ले जाने की सारी जिम्मेदारी मेरी है।

एंटीना और तार का टीवी से कनेक्शन

रिक्शे पर टीवी जी को रखा गया। हम एंटीना और तार लेकर इस अंदाज में बैठे मानों सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से कोई मिसाइल लांच करने जा रहे हों..रस्ते में जो दिखता, उसके पूछने से पहले ही बता देते, टीवी है जी…!
आख़िरकार रिक्शा ने गांव में प्रवेश किया। घर की दहलीज आ गई। मोहल्ले के सारे लोग अपने-अपने दरवाजे पर.. उस दिन रिक्शे से उतरकर लगा कि हम टीवी लेकर नहीं बहुत सारी इज्जत औऱ प्रतिष्ठा लेकर लौटे हैं। और दुनिया से हम कह सकते हैं कि देखो, हम बराबर हैं, बिल्कुल बराबर।
अब हमारे पास इतनी ताकत है कि हम कृषि दर्शन को भी रंगोली समझकर देख सकते हैं। हमारे लिए खेतों में गोबर का छिड़काव और मोरा जियरा डरने लगा,धक धक करने लगा जैसे गाने में कोई अंतर नही है। क्योंकि आज से इस टीवी का स्विच हमारे हाथों में है।

टीवी की कीमत: हे प्रभु अब आप ही इस टीवी की रक्षा करना

अंततः टीवी जी को एक मेज पर रखा गया। शुभ काम से पहले अगरबती दिखाओ जी। फिर तो मेज पर पड़ी धूल को अपनी स्कूल ड्रेस से साफ किया और बिना नहाए-धोए अगरबत्ती जलाकर तैतीस कोटि के देवताओं का स्मरण किया कि हे प्रभु अब आप ही इस टीवी की रक्षा करना।
लेकिन तब शायद शुभ मुहूर्त नही था। दादी ने कहा भी था कि टीवी पर सबसे पहले जय हनुमान चलेगा…सिनेमा नही चलेगा। शुभ काम भगवान से शुरू होना चाहिए।

हमने कहा, नही, आज तो शुक्रवार है, आज तो फ़िल्म आएगी, आज ही टीवी चलेगा। इतना सुनते ही अचानक बिजली चली गई। मन का आंगन अंधेरे से भर गया। सारा चित्रहार झिलमिला उठा। दादी ने कहा, देखो, हम कहे थे न कि मत चलाओ आज..अब लो।
दिल के कोने में दबी सारी चीखें बाहर आने को हो आई। हाय रे बिजली तूने ये क्या किया।

बगल के एक चाचाजी से देखा न गया…उन्होंने कहा,”कोई बात नहीं..हम बैटरी लाते हैं..टीवी तो आज ही चलेगा।
आखिरकार बैट्री आ गई। टीवी के झिलमिलाने और खसखसाने का एक मधुर नाद वातावरण में गुंजायमान हो उठा। सबके मुरझाए चेहरे पर रात रानी के फूलों सी रौंनक उतर आई..

और एंटीना हिलाते-हिलाते ये पता चला कि टीवी पर तो बाज़ीगर आ रही है। जो हारके जीत जाए, उसे बाजीगर कहतें हैं। उस रात हम भी तो हारके जीते थे। रात भर टीवी के सामने हम बाजीगर बनकर बैठे ही रह गए।
सुबह उनीदी आंखों से उठे। माताजी ने कहा आज तो स्कूल है, स्कूल जावो। दादी ने कहा, जाने दो, इसे नींद आ रही। सो जावो, मंडे को जाना।

हमारे तो मजे ही हो गए। शनिवार से लेकर पूरे रविवार के हर प्रोग्राम हमने तब तक देखा, जब तक बाबा ने आकर ये न कह दिया कि टीवी को थोड़ा आराम कर दो, देखो तो एकदम हीटर के माफ़िक गर्म हो गया। जल भी सकता है।
हमने टीवी बन्द कर दिया। और सोमवार को सीना चौड़ाकर स्कूल पहुँच गए।

एक ज़माने में शनिवार-रविवार की दुनिया थी अलग

अब स्कूल में हम भी उन चंद छात्रों में से एक थे, जो रात को आने वाले टीवी सीरियल्स और फिल्मों की कहानियों के बारे में विशेषज्ञ होने का दावा करते थे। हमने भी सबको बाज़ीगर की कहानी बताई। बताया कि शनिवार को बेताब में क्या हुआ। रविवार शाम चार बजे से आने वाली फ़िल्म मासूम कितना मासूम था।
आमतौर पर टेलीविजन चर्चा में सबसे पीछे रहने वाले मुझ बालक को देखकर उस फील्ड के जानकारों में हड़कम्प मच गई। भाई आखिर ये मार्केट में टीवी का नया-नया एक्सपर्ट कबसे पैदा हो गया ? हमने शान से बताया, अब हमारे घर भी टीवी आ गया।
कुछ ही देर में असेंबली का समय आया। प्रिंसिपल ने कहा, क्लॉस फाइव वाले जो लोग शनिबार को स्कूल नही आए थे, खड़े हो जाएं। क्लॉस टीचर ने अपना एंटीना हमारी तरफ घूमा दिया। हमने खड़े होकर उस समय स्कूल न आने के सारे बहाने गिना दिए, जैसे भैस की तबियत खराब थी..बुआ मर गई हैं..मौसा हॉस्पिटल में हैं।
लेकिन चूंकि पिछ्ले हफ्ते बुआ को हम एक बार मार चुके थे, इसलिए इस बार फूफा को मारकर काम चलाना पड़ा तब तक एक लड़के ने उठकर कहा, नही सर, ये झूठ बोल रहा है, इसके घर टीवी आया है न ?
इसके बाद तो हमारी इतनी पिटाई हुई कि हम खुद दूरदर्शन बन गए और सारा स्कूल दर्शक।

सच्चाई: नए जनरेशन के लिए एक सीख

आज स्मार्टफोन के दौर में पैदा होने वाली पीढ़ी भले न इसका महत्व न समझ सके। लेकिन इंस्टाग्राम की रिल्स स्क्रॉल करते हुए पच्चीस साल पहले एक टीवी के चक्कर में पीटे जाने का सुख याद करके मन रोमांचित सा हो जाता है।
हम जीवन के सबसे उबासी भरे समय में बार-बार उसी टेलीविजन के सामने जाकर बैठे, ये जानते हुए भी कि इसके सामने बैठकर हम वक्त से पहले बड़े हो जाएंगे।

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