कथक को आम तौर पर एक ‘एलीट आर्ट फॉर्म’ माना जाता है, लेकिन यह कहानी एक ऐसे साधक की है जिसने बनारस की गलियों से निकलकर कॉमनवेल्थ गेम्स और चीन के अंतरराष्ट्रीय कला मंच तक का सफर तय किया, वो भी बिना किसी बड़े नाम या मंच के सहारे।
“लोग मुझे ‘नचनिया’ कहते थे, लेकिन मैंने इसे साधना बना लिया। आज जब बच्चों को सिखाता हूं, तो लगता है कि यही मेरा असली मंच है।”आशीष सिंह, कथक कलाकार
वैश्विक स्तर पर जा चुके हैं आशीष
आशीष, मूल रूप से बनारस के निवासी हैं, और फिलहाल अल्मोड़ा में रहकर बच्चों को कथक की शिक्षा दे रहे हैं। उन्हें 2010-12 में भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से छात्रवृत्ति मिली। इसके बाद उन्होंने पंडित बिरजू महाराज जी के दल के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स की उद्घाटन समारोह में प्रदर्शन किया। 2015 में वे चीन के सेकंड सिल्क रोड इंटरनेशनल आर्ट फेस्टिवल में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
कथक: मंदिरों से कोठों तक की यात्रा
कथक साधक आशीष ने कहा, “कथक की उत्पत्ति मंदिरों से हुई। फिर ये राजाओं के दरबारों में गया, और वहां से कोठों तक पंहुचा। लोग इस इतिहास को समझे बिना, कलाकारों को ‘नचनिया’ कह देते हैं।” उनका मानना है कि कोठे उस दौर में कला और तहजीब का केंद्र हुआ करते थे, न कि ‘भ्रष्टता’ का।
नृत्य सिर्फ प्रदर्शन नहीं, एक साधना है
आशीष वृंदावन में मीरा बाई मंदिर और बनारस में उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब की जगह पर रियाज़ करते हैं। उन्होंने बताया “मैंने नृत्य को ईश्वर की उपासना समझकर अपनाया है,”वो यह भी मानते हैं कि आज के समय में नृत्य शिक्षा से ज़्यादा “स्टेज परफॉर्मेंस” पर जोर हो गया है, जो कला की आत्मा को खो देता है।
समाज में नृत्य को पुनर्स्थापित करने की जरूरत
आशीष ने कहा “आज भी जब किसी लड़के को डांस में देखा जाता है, खासकर ग्रामीण भारत में, तो उसका मजाक उड़ाया जाता है।” ऐसे में सवाल उठता है क्या कला सिर्फ ‘एलीट’ वर्गों के लिए रह गई है? इसका समाधान शिक्षा में है। आशीष कहते हैं, “जिस तरह गणित और विज्ञान पढ़ाया जाता है, वैसे ही नृत्य और संगीत को भी स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।” उनका मानना है कि अगर बच्चों को शुरू से यह सिखाया जाए कि नृत्य एक विद्या है, एक तपस्या है, तो उन्हें कभी सफाई नहीं देनी पड़ेगी कि वे क्या कर रहे हैं।
एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की जरूरत
कथक, ठुमरी, तवायफ संस्कृति, मंदिर परंपरा और गुरु-शिष्य प्रणाली — ये सब भारत की गहरी सांस्कृतिक जड़ें हैं। आशीष जैसे कलाकार इन जड़ों को आज के समाज से जोड़ने का काम कर रहे हैं। आज जरूरत है ऐसे कलाकारों को मंच देने की, जो नाम से नहीं, काम से पहचाने जाते हैं।
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