छत्तीसगढ़ में एक हजार से अधिक किसान जनवरी से लेकर मध्य जून तक नदी में खेती करते हैं। यहां होने वाले तरबूज और खरबूज में मिठास बहुत ज्यादा रहती है। पकने पर अपने आप सुगंध से पता चल जाता है। इस वजह से देशभर में पसंद किया जाता था। हालांकि रकबा कम होने से अब प्रदेशभर में ही सप्लाई होती है। लवण में मिले किसानों ने बताया कि तरबूज तैयार होने में 55 दिन लग जाता है।
रेत ठेकेदार से जमीन लेते हैं किराये पर
महानदी में खेती करने वाले आरंग के नरेंद्र साहू ने बताया कि 10 साल से यहां खेती कर रहे हैं। रेत घाट ठेके पर लेने वाले ठेकेदारों से वे जमीन किराये पर लेते हैं। इस वर्ष 20 हजार रुपए में उन्होंने जमीन ली है। जनवरी में नदी का पानी कम होते ही खेती की शुरुआत हो जाती है। सबकुछ पानी पर निर्भर करता है। आमतौर पर नुकसान नहीं होता है। तरबूज निकलने में अभी 15 दिन का समय है। कुछ किसान यहां आलू की भी खेती कर रहे हैं। गंगा बेसिन से हुई थी शुरुआत
नदी किनारे तरबूज-खरबूज की खेती की शुरुआत गंगा बेसिन में हुई थी। उत्तरप्रदेश के गंगा किनारे के क्षेत्र में दियारा कल्टीवेशन बड़ी मात्रा में होती थी। यहीं से देश के दूसरे हिस्सों में यह फैला। छत्तीसगढ़ में हजारों किसान इसमें जुड़े हैं। महाराष्ट्र से किसान आकर यहां खेती करते थे। वे लीज पर नदी घाट लेते थे। अब उनका आना कम हुआ है तो छत्तीसगढ़ी
किसान बढ़े हैं। आरंग, लवण, कुरूद, काठाडीह समेत आसपास बड़ी संख्या में किसान खेती के लिए आते हैं।
एक्सपर्ट व्यू
छत्तीसगढ़ में तरबूज की शुगर बेबी, अर्का मानिक जैसी वैराइटी बहुत प्रचलित थी। अब आइस क्यूब सेगमेंट की वैराइटी सभी जगह चल रही है। रिवर बेड कल्टीवेशन में इस वैराइटी का ज्यादा उपयोग होता है। नदी किनारे जहां रेत होता है, जड़ में ठंडापन रहता है। वैसी परिस्थितियों में ऊपर गरम नीचे ठंडा रहता है इस वजह से यहां के तरबूज में मिठास ज्यादा होती है। साथ ही नदी किनारे वाले में कीट-बीमारी कम आती है। इस वजह से कीटनाशकों का उपयोग भी नहीं होता। रेत खनन के कारण नदी में गड्ढे हो रहे हैं। स्वभाविक है, इससे रकबा कम होगा ही। – डॉ. धनंजय शर्मा, एसोसिएट डायरेक्टर, रिसर्च, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय