दरअसल, राजस्थान की राजनीति भी वर्षों से जातीय समीकरणों पर निर्भर रही है, इसलिए इस फैसले के दूरगामी सामाजिक और सियासी प्रभाव पड़ने तय हैं।
जातिगत जनगणना- क्यों है अहम?
बताते चलें कि राजस्थान की राजनीतिक सत्ता में ओबीसी, एससी, एसटी और सवर्ण समुदाय वर्षों से अपने-अपने तरीके से भागीदारी निभाते आए हैं। जातिगत जनगणना से इन वर्गों की वास्तविक जनसंख्या और हिस्सेदारी के आंकड़े सामने आएंगे, जिससे सामाजिक न्याय और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग को नई दिशा मिलेगी।
प्रमुख जातियां और संभावित असर
ओबीसी वर्ग- जाट, माली, गुर्जर, मीणा (कई क्षेत्रों में ओबीसी, कई में एसटी), विश्नोई जैसे समुदाय राज्य की राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। जाट समुदाय, जो लंबे समय से खुद को राजनीतिक रूप से हाशिए पर मानता है, संख्या बल के आधार पर आरक्षण और टिकट वितरण में अधिक हिस्सेदारी मांग सकता है। वहीं, प्रदेश में गुर्जर आंदोलन 2007 से लेकर 2019 तक चला, उसे जातिगत आंकड़ों से नया बल मिल सकता है। माली, सैनी और विश्नोई जैसी जातियां जो खुद को प्रतिनिधित्व से वंचित मानती हैं, अब ठोस आँकड़ों के आधार पर अपनी मांगें आगे रख सकेंगी।
एसटी वर्ग- राज्य के भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ जैसे क्षेत्रों में आदिवासी (भील, गरासिया, सहरिया) समुदाय रहते हैं। वर्तमान में मीणा समुदाय का वर्चस्व एसटी आरक्षण में देखा गया है। UPSC 2024 में 82 एसटी उम्मीदवारों में से 31 मीणा समुदाय से थे, यानी करीब 35%। इससे अन्य आदिवासी जातियां (भील, गरासिया आदि) आरक्षण में उपवर्गीकरण की मांग कर सकती हैं।
एससी वर्ग- राजस्थान में वाल्मीकि, मेघवाल, जाटव जैसे समुदायों की बड़ी संख्या है। ये समुदाय सरकारी योजनाओं और नौकरियों में पारदर्शिता की मांग करते आए हैं। जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर ये वर्ग सशक्तिकरण के नए उपायों की मांग करेंगे।
सवर्ण वर्ग (ब्राह्मण, राजपूत, बनिया, कायस्थ)- सवर्ण समुदायों ने EWS आरक्षण के जरिए भागीदारी सुनिश्चित की है, लेकिन जातिगत जनगणना से नई बहस शुरू हो सकती है कि क्या जनसंख्या के अनुपात में सवर्णों को वाजिब हिस्सा मिल रहा है?
राजनीतिक समीकरणों पर असर
बता दें, जातिगत जनगणना का असर सिर्फ समाजशास्त्रीय नहीं, बल्कि राजनीति की जड़ों तक जाएगा। क्योंकि भाजपा परंपरागत रूप से सवर्ण वोट बैंक पर निर्भर रही है, अब ओबीसी और दलित वर्गों में पैठ बढ़ाने की कोशिश करेगी। वहीं, कांग्रेस लंबे समय से पिछड़े वर्गों के वोट बैंक की राजनीति करती रही है, इन आंकड़ों के आधार पर नीतियों की रीब्रांडिंग कर सकती है। इसके अलावा माली, विश्नोई, गुर्जर, सैनी जैसे समुदायों से नए क्षेत्रीय राजनीतिक फ्रंट उभर सकते हैं।
जातिगत जनगणना के सामाजिक परिणाम
सकारात्मक पहलू- सटीक सामाजिक-आर्थिक असमानताओं की पहचान हो सकेगी। आरक्षण की पारदर्शिता और प्रभावशीलता बढ़ेगी। नीति निर्माण में भागीदारी सुनिश्चित होगी, जिससे अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक योजनाएं पहुंचेगी। नकारात्मक पहलू- जातिवाद और सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिल सकता है। संख्या बल के आधार पर जातीय द्वेष और भेदभाव को बल मिलेगा। परिवार नियोजन पर असर पड़ेगा यदि जाति विशेष जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा देती है। संसाधनों का बोझ बढ़ सकता है। जनसंख्या के आधार पर टिकट वितरण और नेता चयन की प्रक्रिया लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती दे सकती है।
राजस्थान की जातिगत राजनीति
गुर्जर आंदोलन (2007–2019)- पांच बार बड़े स्तर पर आंदोलन, कई जिलों में रेलमार्ग बाधित किए गए, वसुन्धरा सरकार के समय गोलीबारी में 72 लोगों की मौत भी हुई। जाट आरक्षण आंदोलन- राजस्थान के शेखावाटी और भरतपुर में आंदोलन। पूर्व पीएम वाजपेयी ने सीकर से आरक्षण की घोषणा की थी। भरतपुर और धोलपुर में अभी जाट आरक्षण का मुद्दा बना हुआ है।
सामाजिक न्याय मंच (2003)- लोकेंद्र सिंह कालवी और देवी सिंह भाटी द्वारा स्थापित मंच, जो आर्थिक रूप से पिछड़े उच्च जातियों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से बनाया गया था।
कब होगी जातिगत जनगणना ?
मोदी सरकार ने संकेत दिए हैं कि जातिगत जनगणना सितंबर 2025 से शुरू हो सकती है। लेकिन प्रक्रिया पूरी होने में करीब एक साल का समय लगेगा। आखिरी आंकड़े 2026 के अंत या 2027 की शुरुआत में आने की संभावना है।