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छत्तीसगढ़ में बैगा, आदिवासी 13 दिनों तक मनाते हैं होली, बांस की पिचकारी और… जानिए परंपरा

Festival: बैगा आदिवासी की सदियों से अलग ही परंपरा चली आ रही है। इसका होली पर्व परंपरा के ओतप्रोत ही होता है। प्रदेश में जहां एक दो दिन की होली मनाई जाती है..

कवर्धाMar 16, 2025 / 02:20 pm

चंदू निर्मलकर

Holi news
Festival: छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के वनांचल में निवासरत बैगा और आदिवासी तेरह दिनों में तक होली का पर्व मनाने हैं। बैगा आदिवासी की सदियों से अलग ही परंपरा चली आ रही है। इसका होली पर्व परंपरा के ओतप्रोत ही होता है। प्रदेश में जहां एक दो दिन की होली मनाई जाती है वहीं कबीरधाम जिले के वनांचल में निवासरत बैगा आदिवासी बाहुल्य गांवों में 13दिन की होली का खुमार रहता है।

Festival: पिचकारी बांस

तेरह दिन की होली को बैगा-आदिवासी तेरस कहते हैं। बैगा आदिवासी रंग की तरह पिचकारी भी प्रकृति से बनाते हैं। पिचकारी के लिए बैगा आदिवासी बांस का उपयोग करते हैं। यह बांस की पिचकारी दो फीट तक लंबी रहती है। होली के लिए इनके पास विशेष पोशाक भी होता है जिसे सेमर पेड़ की लकड़ी से बनाया जाता है जिसको खेकड़ा खेकड़ी कहते हैं।
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यह काकी हल्का व मुलायम होता है। पोशाक भी केवल युवतियों के लिए होता है। होलिका जलाने के बाद फाल्गुन त्यौहार शुरू होता है। ढोल व नगाड़े बजाकर यह होली खेलते हैं। एक ओर जहां बड़े बुजुर्ग झूमते रहते हैं। क्योंकि महुआ उनके लिए सर्वप्रथम है। महुआ के बिना इनका कोई त्योहार नहीं होता। इसमें पुरुषों के साथ बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल रहती हैं। वहीं दूसरी ओर बच्चे प्राकृतिक रूप से तैयार किए रंगों से होली खेलते हैं।
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पुरुष करते हैं श्रृंगार

बैगा आदिवासी तेरह दिन तक यानी तेरस उत्सव मनाते हैं। पुरुष फागुन नृत्य बिना श्रृंगार के नहीं होता। श्रृंगार करके ही बैगा युवक युवतियां नृत्य करते हैं। महिला पुरुष का अपना-अपना श्रृंगार होता है। पुरुष घेरदार घाघरा पहनते हैं साथ ही कमीज सलूखा, काली जाकेट, सिर पर पगड़ी और उसमे मोर पंख की कलगी गले में विभिन्न रंगों की मालाएं पहनते हैं। सभी हाथों में ठिसकी वाद्य यंत्र रहता है। बैगा महिलाएं श्रृंगार कर नृत्य करती है। मुंगी धोती धारण करती है। जुड़े में मोर पंख कलगी पहनती हैं।

महीनेभर से तैयारी

होली के बाद 13 दिन हुआ तो फिर तेरस त्यौहार के रूप में मनाते हैं जो बड़ा त्योहार होता है। टेसू पलास रूके फू लों को सुखाकर खुद गुलाल तैयार करते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासी लोग हर्बल नुस्खे से होली खेलते हैं। बैगा आदिवासी गुलाल के साथ-साथ प्राकृतिक पेड़ पौधे और फूल का उपयोग कर रंग बनाते हैं। भदोर बेला जो 12 मार्च में ही खिलता है उसे बैगा आदिवासी लोग केशव फूल बोलते हैं। फूल एक दो दिन में ही खिलकर मुरझा सुख जाता है।
उसका रंग टेसू पलास के फूल जैसा ही होता है। फूल में रस भरा होता है जिसे निकालकर उसे सुखाया जाता है। यह सूखने के बाद गाढ़ा पीला रंग बनता है जबकि टेशू से बंदन रंग बनाते हैं। बैगा आदिवासी इन दोनों रंग का उपयोग करते हैं। महिनेभर पहले ही यह कार्य शुरू हो जाता है। हाथ से तैयार किए गए इसी रंग से होली खेली जाती है। चूंकि प्राकृतिक रंग है तो किसी प्रकार की दिक्कत भी नहीं होती।

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