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छत्तीसगढ़ में होली का त्यौहार अपने विशिष्ट रंग के साथ आता है। समय के साथ कई पारंपरिक रिवाज थोड़ी धूमिल जरूर हुई है पर यह आज भी कायम है। जैसा डंडा नृत्य। गांवों में आज डंडा नाच की परंपरा जीवित है। पहले तो महिने भर तक इसकी प्रैक्टिस चलती थी।
राधा कृष्ण के बिना अधूरी है फाग गीत होली में श्रीकृष्ण और राधा से जुड़े गीतों की भरमार है। डॉ. वर्मा कहते हैं कि किसन कन्हैया पर तो गीतों की पूरी श्रृंखला है। जैसे मुख मुरली बजाय…छोटे से श्याम कन्हैया। यह गीत आज भी उतनी ही लोकप्रिय है जितनी पहले यानी हमारे पुरखों के जमाने में थी।
शरीर के साथ मन का विकार जलाने की प्रथा छत्तीसगढ़ में
होली की कुछ परंपराएं आज भी निभाई जा रही है। इसमें शरीर के साथ मन के विकार को जलाने की प्रथा है। होली में खटमल (ढेकना) या खून चूसने वाले अन्य कीट से मुक्ति के लिए भी टोटके की परंपरा है। उसे भी जलाते हैं, ताकि खटमल तंग न करे। गीत भी है- कहां लुकाए रे ढेकना, कहां लुकाए खटिया म, होलिका संग करो रे बिनास, ढेकना कहां लुकाए खटिया म।
होली से जुड़ा भक्त प्रहलाद, उसकी बुआ होलिका और पिता हिरणकश्यप की कथाएं भी गीतों में आती है। इसमें आस्था की जीत और विभ्रम अनास्था की हार की कथा है जो गीतों में कही जाती है। प्रहलाद की भगावन विष्णु पर अनुरक्ति से नाराज पिता हिरणकश्यप ने उसे जलाने के लिए अपनी बहन होलिका को गोद में बिठाकर होली दहकाया था। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका खुद जल गई और भक्त प्रहलाद बच गए।
अंडा पेड़ की डाली के साथ होलिका दहन होलिका दहन में अरंडी के पौधे का खास महत्व है। छत्तसीगढ़ के एतिहास पर शोध करने वाले साहित्याकर सुशील भोले बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में होलिका दहन के लिए। बसंत पंचमी के दिन होलिका दहन स्थल पर अरंडी (अंडे का पेड़) गढ़ाकर पूजन का विधान है। फिर उसी स्थान पर महीने भर तक। लकड़ी और कंडे इकट्ठे किए जाते हैं। जिसे होली के दिन जलाया जाता है।