ये हैं फसल के पैटर्न में परिवर्तन के कारण
आर्थिक लाभ के अलावा फसलों के पैटर्न में बड़ा परिवर्तन के प्रमुख कारणों में से एक फफूंद का संक्रमण भी है। गेहूं की फसल को लगने वाले इस रोग को गेहूं ब्लास्ट भी कहा जाता है। 2016 में बांग्लादेश में इस बीमारी के फैलने के बाद बंगाल सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों में गेहूं की खेती पर 2022 में प्रतिबंध लगा दिया। नदिया के सरकारपुरा गांव के किसान शिव प्रसाद मंडल ने बताया कि अब आर्थिक रूप से गेहूं की खेती संभव नहीं है। बाजार में इसकी कीमत नहीं बढ़ती। ओलावृष्टि और बेमौसम बारिश और अन्य आपदा से गेहूं की फसल को भी नुकसान होता है। गेहूं की खेती के कारण के क्षेत्र में भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है।
अधिक लाभदायक फसल की खेती
राज्य के एक कृषि अधिकारी ने बताया कि गेहूं उत्पादकों को प्रति क्विंटल लगभग 3,200-3,800 रुपए और मक्के से उन्हें लगभग 1,800 रुपए मिलते हैं लेकिन, गेहूं की तुलना में मक्के का उत्पादन प्रति हेक्टेयर अधिक होता है। इसलिए यह अधिक लाभदायक होता है। केले की खेती अधिक लाभदायक है, खासकर त्योहारी सीजन में। पीक सीजन में हम प्रति क्लस्टर 350-400 रुपए और औसतन 150-200 रुपए कमा सकते हैं लेकिन, केला की खेती भी एक जुआ है। बाढ़ या भारी बारिश में इसकी फसल नष्ट हो जाती है। फिर भी अभी यह गेहूं का एक बेहतर विकल्प लग रहा है।
अदरक की जगह छोटे-छोटे चाय बागान ले रहे
उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग, डूआर्स और तराई क्षेत्र में परम्परागत तौर पर चाय की खेती होती है। आर्थिक लाभ को ध्यान में रखते हुए इसके आसपास के जलपाईगुड़ी, अलीपुरदुआर, कूचबिहार, उत्तरी दिनाजपुर और दार्जिलिंग जिलों के पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों में पाट और अदरक की जगह छोटे-छोटे चाय बागान ले रहे हैं। उत्तर बंगाल में लगभग 30,000 ऐसे छोटे चाय बागान हैं। इस क्षेत्र में लगभग 91 मिलियन किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है। उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना जिला और मिदनापुर में खाद्यान्न फसलों की जगह फूली की खेती ले रही है। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 29,000 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती होती है, जहां लगभग 77,246 मीट्रिक टन (एमटी) खुले फूल और 28,973 मीट्रिक टन कटे फूल की उपज होती है।