प्रदेश सरकार ने परिषदीय स्कूलों के मर्जर की योजना को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 से जोड़ते हुए कहा है कि कम नामांकन वाले, एकल शिक्षक वाले या बुनियादी सुविधाओं से वंचित स्कूलों को पास के बड़े स्कूलों में विलय किया जा रहा है, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सके। लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका असर ठीक उलटा दिखाई दे रहा है। ग्रामीण, दलित और गरीब समुदायों के बच्चों के लिए ये स्कूल न केवल शिक्षा का एकमात्र साधन थे, बल्कि सामाजिक समावेशन और आत्मनिर्भरता का जरिया भी थे।
अखिलेश यादव ने साधा निशाना
इस पूरे मुद्दे ने राजनीतिक रंग तब लिया जब समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने सीधे आरोप लगाया कि जिन इलाकों में भाजपा को पिछले चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, उन्हीं इलाकों के स्कूलों को टारगेट कर मर्ज किया जा रहा है। उन्होंने इसे भाजपा की एक ‘साजिश’ बताया और कहा कि यह बच्चों से शिक्षा छीनने और विपक्ष के प्रभाव वाले क्षेत्रों को पिछड़ेपन में धकेलने की योजना है। उन्होंने यहां तक कहा कि भाजपा उन इलाकों से बदला ले रही है, जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस मर्जर नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह फैसला गरीबों, दलितों और कमजोर वर्गों के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि परिषदीय स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे इन्हीं वर्गों से आते हैं और सरकार का यह कदम उन्हें शिक्षा से वंचित करने की दिशा में बढ़ाया गया एक अन्यायपूर्ण प्रयास है। मायावती ने मांग की है कि सरकार इस फैसले को तत्काल वापस ले और शिक्षा के अधिकार को प्राथमिकता दे।
51 बच्चों ने हाईकोर्ट में दायर की याचिका
इस विवाद ने न्यायिक हस्तक्षेप का रूप तब लिया जब 51 स्कूली बच्चों ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने कहा कि मर्जर के कारण उन्हें अपने गांव से दूर जाकर स्कूल जाना होगा, जो उनके लिए असंभव है। याचिका में यह भी कहा गया कि इन स्कूलों को बंद करना संविधान द्वारा प्रदत्त शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन है। हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब तलब किया है, और अब यह मामला गंभीर संवैधानिक सवालों की ओर बढ़ता दिख रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह मर्जर योजना उन जिलों को विशेष रूप से प्रभावित कर रही है जहां भाजपा को चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, जैसे आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर, अम्बेडकरनगर और बहराइच। इन जिलों की जनसंख्या संरचना देखें तो यहां बड़ी संख्या में दलित, मुस्लिम और पिछड़े वर्ग के लोग रहते हैं। सवाल उठता है कि क्या यह मर्जर केवल शिक्षा के नाम पर एक राजनीतिक पुनर्संरेखन (Political Realignment) है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि परिषदीय स्कूलों का यह पुनर्गठन भाजपा की उस रणनीति का हिस्सा हो सकता है, जिसमें वह ग्रामीण और पिछड़े वोट बैंक को कमजोर करना चाहती है। शिक्षा सामाजिक सशक्तिकरण का माध्यम होती है, और अगर किसी विशेष समुदाय को इससे वंचित किया जाता है, तो वह न केवल आर्थिक रूप से पिछड़ता है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी हाशिए पर चला जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सरकार शिक्षा के जरिए वोट बैंक की सर्जरी कर रही है?
दूसरी ओर, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े संगठनों और विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मर्जर की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी रही है। न तो स्थानीय पंचायतों से राय ली गई, न ही अभिभावकों या बच्चों की सहमति ली गई। बच्चों की संख्या घटने का जो तर्क दिया गया, वह कई जगहों पर भ्रामक साबित हुआ है। उदाहरण के तौर पर कई स्कूलों में 20-25 बच्चे पढ़ रहे हैं, फिर भी उन्हें मर्ज किया जा रहा है।
बच्चों के भविष्य को लेकर उठ रहा बड़ा सवाल
इस पूरे घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि शिक्षा नीति अब केवल शैक्षणिक योजना नहीं रह गई, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक नीति का हिस्सा बन चुकी है। जब कोई बच्चा अदालत में कहता है कि ‘स्कूल बंद हो जाएगा तो हमें भीख मांगनी पड़ेगी’, तो यह केवल एक मर्जर नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के भविष्य को लेकर उठता सवाल है।