भारत में अंकों का विकास लगभग 3,000 वर्ष पहले शुरू हुआ। माना जाता है कि वर्तमान रूप में यह अंक पहली से तीसरी शताब्दी ईस्वी के बीच ब्राह्मी लिपि से विकसित हुए। सबसे अहम योगदान शून्य (0) का था, जिसे भारतीय गणितज्ञों ने ही सबसे पहले एक स्वतंत्र संख्या के रूप में परिभाषित किया। इसी तरह हमने ही दशमलव प्रणाली बनाई। गणितज्ञ आर्यभट्ट (5वीं शताब्दी) ने शून्य और ब्रह्मगुप्त (7वीं शताब्दी) जैसे विद्वानों ने कई अन्य गणितीय प्रणालियों को परिष्कृत किया। ब्रह्मगुप्त ने शून्य के साथ जैसे जोड़ और घटाव को नियमबद्ध किया। प्राचीन भारतीयों ने अंकों का विकास स्थानीय व्यापार और खगोलीय गणनाओं के लिए किया। आगे चल कर भारतीय गणितज्ञों ने इन्हें ज्योतिष, वास्तुकला और दैनिक जीवन में अपनाया। जब यह अंक देवनागरी लिपि में लिखे जाने लगे तो इनका व्यापक विस्तार होने लगा।
8वीं और 9वीं सदी में अरब पहुंचे
भारत से अंक 8वीं और 9वीं शताब्दी में अरब पहुंचे। भारतीय अंकों और दशमलव प्रणाली का उपयोग फारसी गणितज्ञ अल-ख्वारिज्मी ने 9वीं शताब्दी में अपनी प्रसिद्ध किताब ‘किताब अल-जबर वल-मुकाबला’ में किया।
विदेशियों के दिमाग पर भारतीय परचम
भारतीय अंक अरब से उत्तरी अफ्रीका और स्पेन तक 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच फैले। उस समय यूरोप में रोमन अंक (I, V, X, आदि) प्रचलित थे। ये कितने जटिल थे इस उदाहरण से समझें; रोमन लोगों को 1545 x1545 = 2383025 जैसी सामान्य गणित के लिए भी MDXLV x MDXLV = MMCCCLXXXIIIXXV लिखना पड़ता था। भारतीय अंकों की सादगी और प्रभावशीलता ने यूरोपीय विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। हालांकि उन्हें यह अरबों से मिले इसलिए उन्होंने अंकों को “अरब नंबर” कहा, उन्हें “एल्गोरिदम” और ‘एलजेब्रा’ जैसे शब्द दिए। दूसरी ओर अरब सच्चाई जानते थे, उन्होंने इन अंकों को “हिंदी अंक” या “हिंदू अंक” ही कहना बेहतर समझा। भारत में जन्मे अंकों की यह यात्रा हमारी सांस्कृतिक और बौद्धिक उत्कृष्टता का एक शानदार उदाहरण है। इनके बल पर भारत ने अरब और यूरोप को समृद्ध बनाया, आधुनिक विज्ञान व तकनीक की नींव रखी। कहा जा सकता है कि जब विदेशी आक्रमणकारी भारत की जमीन जीत रहे थे, हमारा ज्ञान उनके दिमाग पर परचम फहरा रहा था।