निशिकांत दुबे ने अपने बयान में कहा, “क्या आपको पता है कि 1967-68 में भारत के मुख्य न्यायाधीश कैलाशनाथ वांचू जी ने कानून की कोई पढ़ाई नहीं की थी।” यह दावा उन्होंने उस समय किया, जब वह न्यायपालिका और उसके इतिहास पर अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। दुबे के इस बयान ने कई सवाल खड़े किए हैं, क्योंकि कैलाशनाथ वांचू एक सम्मानित जज थे, जिन्होंने भारतीय न्यायपालिका में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
निशिकांत दुबे ने आगे कहा कि कांग्रेस के संविधान बचाओ की एक मजेदार कहानी,असम में बहरुल इस्लाम साहिब ने कांग्रेस की सदस्यता 1951 में ली,तुष्टिकरण के नाम पर कांग्रेस ने उन्हें 1962 में राज्यसभा का सदस्य बना दिया,छह साल बाद दुबारा 1968 में राज्य सभा का सदस्य सेवाभाव के लिए बनाया,इनसे बड़ा चमचा कॉग्रेस को नज़र नहीं आया राज्यसभा से बिना इस्तीफ़ा दिलाए हाईकोर्ट का जज 1972 में बना दिया,फिर 1979 में असम हाईकोर्ट का कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बना दिया,बेचारे 1980 में रिटायर हो गए,लेकिन यह तो कांग्रेस है जनवरी 1980 में रिटायर हुए जज को दिसंबर 1980 में सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया,1977 में इंदिरा गांधी जी के उपर लगे सभी भ्रष्टाचार के केस इन्होंने तन्मयता से ख़त्म कर दिए ,फिर ख़ुश होकर कांग्रेस ने इन्हें 1983 में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर कर कॉग्रेस से राज्यसभा का तीबारा सदस्य 1983 में ही बना दिया ।मैं कुछ नहीं बोलूँगा?
कौन है कैलाशनाथ वांचू?
कैलाशनाथ वांचू, जो 1967 से 1968 तक भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे। हालांकि, दुबे के दावे ने उनके शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर नया विवाद खड़ा कर दिया है। इतिहास के अनुसार, वांचू ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी और वे इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनके पास कानून की डिग्री नहीं होने की बात को लेकर इतिहासकारों और कानूनी विशेषज्ञों में मतभेद हैं, लेकिन यह सत्य है कि उस दौर में कानून की औपचारिक डिग्री के बिना भी कई लोग अपनी प्रतिभा और अनुभव के बल पर उच्च पदों तक पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट पर विवादास्पद बयान
यह पहली बार नहीं है जब निशिकांत दुबे ने न्यायपालिका को लेकर विवादास्पद टिप्पणी की हो। इससे पहले भी वे सुप्रीम कोर्ट और उसके फैसलों पर सवाल उठा चुके हैं, जिसके कारण उनकी आलोचना हुई थी। उनके इस ताजा बयान को कई लोग न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सम्मान पर हमला मान रहे हैं। विपक्षी दलों ने इसे “न्यायपालिका को बदनाम करने की साजिश” करार दिया है, जबकि कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने इसे गैर-जिम्मेदाराना और तथ्यों से परे बताया है।
दुबे के बयान ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राजनेताओं को ऐतिहासिक और संवेदनशील मुद्दों पर बोलने से पहले तथ्यों की जांच करनी चाहिए। यह विवाद तब और गहरा गया, जब कुछ सोशल मीडिया यूजर्स ने उनके दावों को खारिज करते हुए वांचू के शैक्षणिक और पेशेवर रिकॉर्ड को सामने लाया।