कैसे शुरू हुई नाराजगी
1975 में जब देश में जेपी आंदोलन (JP Movement) जोर पकड़ रहा था, इंदिरा गांधी इस जन आक्रोश से निपटने के लिए बुरी तरह उलझ गई थीं। गुजराल के अनुसार, इंदिरा गांधी आरोपों और आंदोलनों से राजनीतिक रूप से जूझने के बजाय मीडिया पर दोष मढ़ने लगी थीं। वे चाहती थीं कि सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में गुजराल मीडिया को सख्ती से काबू में रखें। गुजराल ने जवाब दिया, ‘इंदिरा जी, मीडिया कोई राजनीतिक लड़ाई का विकल्प नहीं हो सकता, राजनीतिक लड़ाई को राजनीति से ही लड़ना पड़ता है।’ इस जवाब ने इंदिरा गांधी को और नाराज कर दिया।
जब रैली में की सार्वजनिक बेइज्जती
इसी नाराजगी का परिणाम था जब गुजरात की एक सार्वजनिक सभा में इंदिरा गांधी ने गुजराल को मंच पर बुलाया और उन्हें अपनी रेनकोट पकड़ने को कह दिया। उन्होंने तंज कसते हुए कहा, ‘आप मेरी रेनकोट पकड़िए, आप कोई और काम तो कर नहीं सके।’ गुजराल ने कहा कि उस समय वे शर्मिंदा और आहत महसूस कर रहे थे, लेकिन उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों से समझौता नहीं किया।
इमरजेंसी की रात और प्रेस सेंसरशिप
25 जून, 1975 की रात जब इमरजेंसी लागू की गई, उस समय गुजराल को इसकी कोई जानकारी नहीं थी। अगले दिन सुबह 6 बजे हुई कैबिनेट बैठक में जाकर उन्हें इसकी जानकारी मिली। बैठक में किसी ने सवाल किया कि पहले से ही 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय इमरजेंसी लगी हुई है, तब तत्कालीन गृह सचिव ने कहा, ‘वह बाहरी आपातकाल था, यह आंतरिक आपातकाल है।’ इमरजेंसी के बाद सरकार ने प्रेस पर सेंसरशिप लागू करने का फैसला लिया। संजय गांधी ने गुजराल से न्यूज बुलेटिन दिखाने को कहा, लेकिन गुजराल ने मना कर दिया। उन्होंने साफ कहा, ‘जब तक मैं मंत्रालय में हूं, चीजें मेरे हिसाब से चलेंगी, मैं प्रधानमंत्री को जवाबदेह हूं।’
इंदिरा गांधी ने उनसे कहा कि वह इस काम के लिए बहुत नरम हैं। गुजराल ने जवाब दिया, ‘इंदिरा जी, यह काम मेरे बस का नहीं है।’ जल्द ही उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से हटा दिया गया और उनकी जगह वीसी शुक्ला को नियुक्त कर दिया गया।
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इंदिरा गांधी का दिलचस्प कमेंट
कैबिनेट में बदलाव की जानकारी किसी को नहीं थी। इंदिरा गांधी ने कैबिनेट में कहा, ‘सूचना मंत्री (गुजराल) विश्वसनीयता के पीछे पागल था।’ गुजराल ने इसे अपनी तारीफ समझा, लेकिन इंदिरा गांधी के लिए यह दोष था।
मास्को भेजे गए गुजराल
इसके बाद इंदिरा गांधी ने 1976 में गुजराल को सोवियत संघ में भारत का राजदूत बनाकर भेज दिया। गुजराल ने उनसे पूछा कि आप मुझे क्यों भेज रही हैं, किसी कम्युनिस्ट को क्यों नहीं भेज रहीं? इंदिरा गांधी ने जवाब दिया, मुझे रूस में भारत का राजदूत चाहिए, रूस का भारत में राजदूत नहीं। यह इंदिरा गांधी और गुजराल के बीच व्यक्तिगत सम्मान को दर्शाता था, भले ही राजनीतिक मतभेद रहे हों। ‘इमरजेंसी ने देश को सबक सिखाया’
गुजराल ने बाद में कहा कि इमरजेंसी भारत के लोकतंत्र पर काला धब्बा थी, लेकिन इसने देश को बहुत कुछ सिखाया। अब कोई कठोर दिनों, संस्थाओं से समझौता करने या न्यायपालिका की प्रतिबद्धता की बात नहीं करता क्योंकि हम उस दौर से गुजर चुके हैं।
राजनीति में नई राह
इमरजेंसी के बाद गुजराल ने कांग्रेस छोड़ दी, जनता दल में शामिल हुए और 1997 में प्रधानमंत्री बने। उनका जीवन इस बात का उदाहरण बना कि कैसे लोकतंत्र में संस्थाओं की रक्षा और व्यक्तिगत मूल्यों से समझौता न करते हुए भी राजनीति में शीर्ष पर पहुंचा जा सकता है।