अंधेरे से उजाले की ओर
गुंजन की यह
यात्रा संकल्प से तपस्या और सिद्धि की है। मूलतः पिथौरागढ़ की रहने वाली गुंजन विवाह के पश्चात हल्द्वानी आईं तो यहां की गलियों में बड़ी संख्या में कटोरा थामे बच्चों को राहगीरों के समक्ष भीख के लिए गिड़गिड़ाते देखा। जिन मासूम बच्चों के कंधों पर किताबों का बस्ता होना चाहिए था, उनकी इस हालत ने उनके मन को कचोट दिया। उसी क्षण उनके मन में एक संकल्प ने जन्म लिया- इन बच्चों को अशिक्षा के अंधेरे से निकालकर शिक्षा के उजाले तक ले जाना।
माता-पिता शिक्षा के प्रति संशयी
गुंजन की चुनौती आसान न थी। पीढ़ियों से भिक्षावृत्ति में लिप्त परिवारों को उनके बच्चों के
शिक्षित व स्वावलंबी बनाने का विश्वास दिलाना किसी हिमालयी चोटी को लांघने से कम न था। बच्चों के माता-पिता शिक्षा के प्रति संशयी थे, मगर गुंजन ने धीरे-धीरे अभिभावकों का विश्वास जीता। पहले कुछ परिवार तैयार हुए, फिर देखा-देखी अन्य भी जुड़ते गए। गुंजन ने बच्चों के आधार कार्ड और अन्य दस्तावेज तैयार करवाए और उन्हें सरकारी स्कूलों में प्रवेश दिलाया।
वीरांगना केंद्र: ज्ञान की नींव
गुंजन ने अपने घर में एक मंदिर बनाया, जिसे उन्होंने ‘वीरांगना केंद्र’ का नाम दिया। यहां वंचित बच्चों को पहले शिक्षा के प्रति प्रेरित किए जाता है। खेल, कहानियों और प्रोत्साहन के माध्यम से उनके मन में पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत की जाती है। साथ ही माता-पिता और परिवार की काउंसिलिंग भी की जाती है। इसके बाद बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया जाता है।
स्वयं की कमाई, बच्चों पर लगाई
नैनीताल को-ऑपरेटिव बैंक में कैशियर के रूप में कार्यरत गुंजन अपनी आय का 50 प्रतिशत इन बच्चों पर खर्च करती हैं। स्कूल की मुफ्त शिक्षा के अतिरिक्त, बच्चों की स्टेशनरी और अन्य जरूरतों का खर्च वे स्वयं वहन करती हैं। उनकी इस निःस्वार्थ सेवा को देखकर कुछ सामाजिक संगठन भी सहायता के लिए आगे आए हैं, जिससे यह मिशन और सशक्त हुआ है।