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अंबेडकर जयंती विशेष: बाबा साहेब सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के भी हमेशा रहे पक्षधर

— डॉ. संजय शर्मा
(असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. हरीसिंह गौर विवि, सागर)

जयपुरApr 14, 2025 / 03:55 pm

विकास माथुर

आधुनिक भारत में जिन व्यक्तियों ने भारतीय जनमानस को सार्थक रूप से प्रभावित किया, उनमें से एक डॉ. भीमराव अंबेडकर हैं, जो देश के बहुजन, वंचित एवं पिछड़े समाज का एक सशक्त प्रतिनिधित्व करते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी की ऐतिहासिक अभावग्रस्तता एवं आधुनिक शिक्षा की वैचारिक सम्पन्नता ही अंबेडकर को सहज स्वीकार्य बनाती है, जहां वे अपने समाज के लिए आधुनिक मसीहा के रूप में लोकप्रिय होते हैं।
डॉ. अंबेडकर के अकादमिक विचार जिसमें उन्होंने अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था एवं धर्म दर्शन पर अपनी विद्वतापूर्ण समझ विकसित की, महत्त्वपूर्ण तो है ही, किंतु अंबेडकर को ‘बाबा साहेब’ के रूप में स्थापित करने में जिसने सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुधारों को लेकर की गई उनकी जमीनी लड़ाइयां थीं, जो हिंदू धर्म एवं उसके बुनियादी दर्शन में आमूल परिवर्तनकारी समझ को विकसित करती हैं। डॉ. अंबेडकर ‘जाति का विनाश’ नामक पुस्तक में इस बात का जिक्र करते है कि धर्म, सामाजिक हैसियत और संपत्ति, ये सभी सत्ता और वर्चस्व के स्रोत हैं। इनके माध्यम से एक व्यक्ति या समाज दूसरे व्यक्ति या समाज की स्वतंत्रता को नियंत्रित करता है। अंबेडकर की क्रांतिकारी प्रतिरोध धर्मिता ही उन्हें सही मायने में बाबा साहेब बनाती है, जहां वे शिक्षा के जरिए समाज को संगठित होने और संघर्ष करने की जमीन तैयार करते दिखाई पड़ते हैं।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आधुनिक ज्ञान-संरचनाओं को उपनिवेशवादी विश्लेषण प्रारूप से समझने का एक तरफा संगठित प्रयास होता रहा है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों, परिघटनाओं एवं आख्यानों को एक संकुचित संदर्भों और अर्थों के रूप में ही पहचान मिलने लगती है। डॉ. अंबेडकर के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व को भी इसी उपनिवेशवादी ‘प्रोजेक्ट ऑफ अंडर स्टैंडिंग’ के तहत केवल एक जाति-वर्ग और कार्य विशेष में ही प्रस्तुत किए जाने का कुत्सित प्रयास किया जाता रहा है। हालांकि यह कवायद प्रारंभिक और सतही तौर पर उनके व्यक्तित्व और विरासत को बहुआयामी संदर्भों में विस्तारित किए जाने का आभास देती है, किंतु वास्तविकता में यह उनके योगदान और प्रभावशीलता के फोकस से भटकाते हुए उन्हें अपने समाज की विरासत से पृथक करने की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होती है।
बाबा साहेब ने भारतीय समाज की तत्कालीन विषमताओं को समाज के भीतर या उसके विस्तृत स्वरूप में रहकर ही सुधार करने की पहल की। यह उनका अनूठा प्रयोग था, जिसने कालांतर में मूल समाज और विस्तृत समाज के नैसर्गिक एवं अन्योन्याश्रित अंतर संबंध को ही प्रतिपुष्ट किया। यह प्रतिरूप एक मुक्त, समर्थ और समावेशी समाज के निर्माण को व्यावहारिक बनाता था जहां प्रत्येक व्यक्ति के पास यह अवसर होता था कि वह विविधतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था में गतिशील हो सके। वस्तुत: बाबा साहेब के संपूर्ण प्रशस्ति-कर्म को एक समाधान-निदान के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतंत्र और राष्ट्रवादी उनके विचार, आर्थिकी एवं महिलाओं के अधिकारों के संदर्भों में किए गए उनके कार्य महज एक घटना नहीं है, बल्कि भारतीय मन, मानस और संस्कृति के पुनर्बोध के लिए चलाया गया एक संगठित अभियान है।
इसमें सामाजिक समानता और सांस्कृतिक एकता के जरिए युगों पुरानी जाति ग्रस्त, अन्यायपूर्ण, भेदभावयुक्त सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था को त्यागकर समता मूलक लोकतांत्रिक गणराज्य का निर्माण हो सके। इस तरह अंबेडकर के राष्ट्रवाद के प्रारूप में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व महत्त्वपूर्ण कसौटियां हैं, जिनके लिए सामाजिक सांस्कृतिक चेतना महत्त्वपूर्ण हो जाती है। अंबेडकर ने आधुनिक भारत की आधारशिला रखते हुए राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना की, जिसके लिए वह संविधान को सर्वोपरि मानते थे।
इसमें कोई दो मत नहीं है कि हम सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र को स्थापित करने में लगातार विफल रहे हैं, इसका असर असहिष्णुता के रूप में हमारे राजनीतिक लोकतंत्र पर भी देखा जा सकता है। डॉ. अंबेडकर की यह चिंता बेमानी नहीं थी, जिसमें उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र के बरक्स सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र को तरजीह दी। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम वक्तव्य में डॉ. अंबेडकर ने कहा कि सरकार को अतिशीघ्र सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र स्थापित कर लेना चाहिए ऐसा न कर पाने पर राजनीतिक लोकतंत्र पर संकट होगा। डॉ. अंबेडकर को सही अर्थ-संदर्भों में समझकर ही उनकी विरासत को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।

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