यूनाइटेड किंगडम संसदीय सर्वोच्चता का आदर्श प्रस्तुत करता है जहां पर संसद संप्रभु है। कोई भी न्यायालय इसके कानून को पलट नहीं सकता तथा कोई कार्यकारी वीटो भी मौजूद नहीं है। ब्रिटेन में यह सिद्धांत सर्वोपरि है कि ‘संसद कोई भी कानून बना सकती है या हटा सकती है।’ सनद रहे कि संहिताबद्ध संविधान का अभाव संसदीय प्रभुत्व को और अधिक बढ़ा देता है, जिसके कारण परम्पराओं, विधियों और उदाहरणों पर निर्भरता बढ़ जाती है। भारत का संविधान संहिताबद्ध यानी एक लिखित दस्तावेज है जिसमें देश की शासन प्रणाली के नियमों, प्रक्रियाओं और संरचनाओं का वर्णन किया गया है। यह संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था और 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। संविधान संहिताबद्ध होने का मतलब है कि इसे एक व्यवस्थित और संगठित तरीके से अनुच्छेदों, भागों और अनुसूचियों में विभाजित किया गया है। यह संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और इसके अनुसार ही देश में सभी कानून बनाए जाते हैं। हालांकि भारत के संविधान में उल्लेखनीय लचीलापन भी मिलता है। लोकतंत्र की खूबसूरती संविधान के अनुसार सरकार चलाने, बहुमत से आवश्यकतानुसार संविधान को संशोधित कर जनता की बहुमत वाली आवाज को प्रमुखता देने से है, लेकिन इसके विपरीत लॉर्ड हेल्शम द्वारा प्रतिपादित शब्द ‘निर्वाचित तानाशाही’ यह शंका व्यक्त करता है कि संसदीय बहुमत वाली सरकारें विधायी और कार्यकारी दोनों शाखाओं को अनियंत्रित ढंग से नियंत्रित कर सकती हैं जिसका असर न्यायपालिका को भी प्रभावित कर सकता है। यहां पर यह बात अलिखित रूप से स्पष्ट है कि हर स्तर की न्यायपालिका (उच्च या सर्वोच्च) जनता की शक्ति प्राप्त संसदीय बहुमत वाली सरकार की विधायी शक्ति से ऊपर नहीं हो सकती अन्यथा ‘न्यायिक तानाशाही’ का खतरा पैदा हो सकता है क्योंकि न्यायपालिका सीधे तौर पर जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है और लोकतंत्र एवं संविधान की रक्षा के लिए जनता का बहुमत सर्वोपरि माना जाता है। ज्ञात रहे कि किसी भी देश की न्यायपालिका को मुख्य रूप से संसदीय इच्छा को चुनौती देने के बजाय उसकी व्याख्या करने के लिए कार्य करना चाहिए तभी संविधान और लोकतंत्र की मर्यादाओं की रक्षा की जा सकती है।
अमरीका इसके बिल्कुल विपरीत स्थिति में है, जहां राष्ट्रपति के पास पर्याप्त स्वतंत्र प्राधिकार हैं, मगर भारत में ऐसे अधिकार न राष्ट्रपति और न ही प्रधानमंत्री के पास हैं जो उन्हें निरंकुश बना पाते हों। यह भारत के संविधान की खूबसूरती और परिपक्वता को दर्शाता है। अमरीका में तो राष्ट्रपति, कांग्रेस और सुप्रीम कोर्ट समान शाखाओं के रूप में कार्य करते हैं अर्थात अमरीकी राष्ट्रपति राज्य और सरकार दोनों का प्रमुख होता है मगर फिर भी यह शक्ति असीमित नहीं है। अमरीकी कांग्रेस राष्ट्रपति पर महाभियोग चला सकती है, वीटो को रद्द कर सकती है और विनियोजन को नियंत्रित कर सकती है, जबकि न्यायपालिका संवैधानिकता के लिए कार्यकारी कार्यों की समीक्षा कर सकती है, जैसा कि यूनाइटेड स्टेट्स बनाम निक्सन (1974) में प्रदर्शित किया गया था। परंतु अमरीकी न्यायपालिका भी सिर्फ व्याख्या तक ही सीमित है, अर्थात अनुचित व्यवहार जैसे भ्रष्ट आचरण, असंवैधानिक हस्तक्षेप, जनता द्वारा चुनी हुई बहुमत की सरकार को नियंत्रित नहीं कर सकती एवं उनके विधायी कार्यों में अतिसक्रियता दिखाते हुए हस्तक्षेप भी तब तक नहीं सकती जब तक कि कोई राष्ट्रीय आपदा जैसी स्थिति न हो। अमरीका में सर्वोच्च न्यायालय एक सक्रिय मध्यस्थ के रूप में उभरता है, जो कांग्रेस के निर्णयों (मारबरी बनाम मैडिसन, 1803) और राष्ट्रपति के आदेश दोनों की समीक्षा करने में सक्षम है। इस प्रकार, कोई भी एक शाखा वास्तव में सर्वोच्च नहीं है, जिससे जानबूझकर तनाव पैदा होता है जो अमरीकी शासन को परिभाषित करता है। परंतु न्यायिक सुचिता के लिए यानी न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को अमरीका में अत्यंत ही गंभीरता से लिया जाता है। न्यायाधीश ‘अबे फोर्टस (1969)’ को एक अमीर फाइनेंसर से जुड़े एक निजी फाउंडेशन से 20,000 डॉलर का रिटेनर स्वीकार करने के कारण इस्तीफा देना पड़ा था।
भारत का संविधान एक मिश्रित लोकतंत्र प्रस्तुत करता है यानी औपचारिक रूप से ही सही मगर संविधान स्वयं दस्तावेज की सर्वोच्चता पर जोर देता है, न कि किसी संस्था की सर्वोच्चता। फिर भी, न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने अनेकों अवसरों पर अक्सर संवैधानिक सीमाओं के अंतिम व्याख्याता के रूप में कार्य किया है, यहां तक कि ‘मूल संरचना’ सिद्धांत (केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973 में स्थापित) जैसे सिद्धांतों के माध्यम से संसद पर अपनी सर्वोच्चता का दावा भी पेश किया है। हाल ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयक मंजूरी की समय सीमा निर्धारण तथा उपराष्ट्रपति की टिप्पणियां ऐसे प्रकरण हैं जो संवैधानिक सर्वोच्चता की धुंधली सीमा रेखा को और गहरा कर देते हैं जिन्हें पुन: परिभाषित करने एवं स्पष्ट करने की आवश्यकता है। हमें जनता का बहुमत और संसद की जनता के प्रति जवाबदेही को केंद्र में रखकर यह समझना होगा कि संविधान जनता के लिए है या फिर जनता संविधान के लिए? यदि जनता के लिए संविधान है तो फिर संविधान की रक्षा की सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनता द्वारा निर्वाचित संसद के दोनों सदनों और राष्ट्रपति की होनी चाहिए न कि किसी और की। उल्लेखनीय है कि भारत में संसद संविधान में संशोधन कर सकती है (अनुच्छेद 368) इसलिए इसकी सर्वोच्चता में कोई शक नहीं होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना भी है कि कुछ मौलिक पहलुओं- जैसे धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और कानून के शासन को छोड़कर (जिन्हें बदला नहीं जा सकता) संसद ही सर्वोच्च है। तब सवाल उठता है कि क्या धर्मनिरपेक्षता संविधान की प्रथम कृति की मूल भावना में थी, या फिर बाद में इसे जोड़ा गया? इस प्रकार, यद्यपि संसद शक्तिशाली है, लेकिन इसकी सर्वोच्चता न केवल लिखित संविधान द्वारा बल्कि न्यायिक व्याख्या पर भी निर्भर करती है। परंतु इसे न्यायिक समीक्षा द्वारा अनावश्यक बाधित करने से बचा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि किसी भी कानून या संवैधानिक पहलू की असीमित या अतार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती। भारत के राष्ट्रपति की यह चिंता कि ‘हजारों लोग छोटे से अपराध के लिए जेल में ही मर जाते हैं क्योंकि उनके पास न्याय पाने के लिये फीस नहीं और न्यायालयों के पास वक्त नहीं, वहीं दूसरी ओर कुछ मामलों में न्यायालय छुट्टी के दिन भी विशेष सुनवाई कर जमानत दे देते हैं’ न्याय की दहलीज पर संवेदनशीलता की धज्जियां उड़ाती है।
संसद, राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की विपरीत शक्तियां भिन्न लोकतांत्रिक दर्शन को प्रकट करती हैं।
- संसदीय लोकतंत्रों (यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया) में विधायिका का प्रभुत्व होता है, लेकिन संवैधानिक सुरक्षा उपायों और न्यायिक व्याख्याओं ने इस प्रभुत्व को कम कर दिया है।
- अध्यक्षीय प्रणाली (अमरीका, ब्राजील, मैक्सिको) में कार्यकारी शक्ति मजबूत होती है, लेकिन स्वतंत्र विधायिकाओं और शक्तिशाली संवैधानिक न्यायालयों द्वारा इसका प्रतिकार किया जाता है।
- मिश्रित प्रणालियों (भारत, दक्षिण अफ्रीका) में, लिखित संविधान अक्सर अंतिम प्राधिकार के रूप में कार्य करता है, जिसमें न्यायपालिका संवैधानिक व्यवस्था को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है परंतु असीमित एवं अतार्किक व्याख्या से बच कर।
दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक संस्कृति भी आज संस्थागत वर्चस्व को गहराई से प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, दक्षिण कोरिया के संवैधानिक न्यायालय ने 2017 में राष्ट्रपति ‘पार्क ग्यून-हे’ के महाभियोग को बरकरार रखते हुए अपनी ताकत का प्रदर्शन किया, जिससे एक परिपक्व लोकतंत्र में न्यायिक दृढ़ता पर प्रकाश डाला गया। इसके विपरीत, तुर्की में राष्ट्रपति एर्दोआन के नेतृत्व में संवैधानिक संशोधनों ने संतुलन को निर्णायक रूप से कार्यपालिका के प्रभुत्व की ओर स्थानांतरित कर दिया है, जिससे लोकतांत्रिक शुचिता और सर्वोच्चता दोनों पर सवाल उठे। इन सभी स्थितियों में परस्पर संतुलन, ईमानदारी और भ्रष्टाचार के लिए जीरो टॉलरेंस से ही लोकतांत्रिक परंपराओं का निर्वहन हो सकता है।
किसी भी संस्था- संसद, राष्ट्रपति या सर्वोच्च न्यायालय को अनियंत्रित सर्वोच्चता प्राप्त नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र तब फलता-फूलता है जब सत्ता के ये केंद्र संवैधानिक ढांचे के भीतर समयानुकूल संतुलन, प्रतिस्पर्धा के बजाय सहयोग में संलग्न होते हैं।