छात्रों की आत्महत्या करने की यह दर, जनसंख्या वृद्धि दर से भी अधिक हो गई है। यही नहीं, यह दर आत्महत्या के अन्य कारकों में भी सबसे अधिक है। रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक में 0 से 24 वर्ष की आयु के बच्चों/किशोरों की जनसंख्या 582
मिलियन से घटकर 581 मिलियन हो गई, जबकि इसी वर्ग में आत्महत्याओं की संख्या 6,654 से बढ़कर 13,044 तक पहुंच गई है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि केवल शिक्षा प्रणाली ही नहीं, बल्कि समाज विशेषकर माता-पिता की सोच में भी बदलाव लाने की जरूरत है। उन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि परीक्षा में विफल होने का मतलब यह नहीं है कि उनके बच्चों के जीवन में अवसर खत्म हो गए हैं।
अंतिम लक्ष्य केवल नौकरी पाना नहीं होना चाहिए वास्तव में, पढ़ाई का अंतिम लक्ष्य केवल नौकरी पाना ही नहीं है, बल्कि यह बच्चों को किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार करना, उनमें सुधार की क्षमता बढ़ाने और नवाचार की भावना विकसित करने का भी नाम है, लेकिन वर्तमान
परिस्थिति में केवल उच्च अंक प्राप्त करने की होड़ ने बच्चों की अन्य क्षमताओं को दबा दिया है। शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान देना नहीं, बल्कि बच्चों को एक जागरूक नागरिक बनाना भी होना चाहिए। उन्हें नैतिकता, जीवन कौशल
और आत्मनिर्भरता के मूल सिद्धांतों से अवगत कराना आवश्यक है।
व्यावहारिक ज्ञान को शामिल करना बेहद जरूरी भारत प्राचीनकाल से ही शिक्षा का केंद्र रहा है। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने शिक्षा को केवल ज्ञान अर्जन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि नैतिकता और व्यावहारिक जीवन कौशल भी सिखाए हैं। यही कारण है कि दुनिया भर से यहां छात्रों पढ़ने के लिए आया करते थे। आज की शिक्षा प्रणाली को भी उसी दिशा में अग्रसर करने की आवश्यकता है। यदि बच्चों को केवल किताबी ज्ञान तक सीमित रखा जाएगा तो वे व्यावहारिक जीवन में संघर्ष नहीं कर पाएंगे। इसलिए जरूरी है कि शिक्षा प्रणाली में नैतिक मूल्यों और व्यावहारिक ज्ञान को सम्मिलित किया जाए। वहीं माता-पिता को भी यह समझना होगा कि हर बच्चा अलग मनोवृति का होता है। हर किसी की रुचि केवल पढ़ाई में नहीं होती है, कुछ बच्चे खेल, संगीत, नृत्य या अन्य कलाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकते हैं। जरूरत है बच्चों की रुचि के अनुसार उसका मार्गदर्शन करना।
कम से कम दस विकल्प देने चाहिए माता-पिता को अपने बच्चों को करियर के चुनाव के लिए कम से कम 10 विकल्प देने चाहिए और यह देखना चाहिए कि बच्चे को किस क्षेत्र में सबसे अधिक रुचि है? क्योंकि जब बच्चा अपनी रुचि से कुछ करता है, तो सफलता के अवसर भी दस गुणा बढ़ जाते हैं. वहीं समय समय पर बच्चों की काउंसलिंग करते रहने की भी जरूरत है। यह काउंसलिंग बच्चों के साथ साथ उसके माता-पिता की भी जरूरी है। उन्हें यह बताने की जरूरत है कि हर बच्चे की अपनी विशिष्ट क्षमताएं होती हैं। कुछ बच्चे
विज्ञान में अच्छे होते हैं तो कुछ साहित्य, खेल, कला या अन्य क्षेत्रों में माहिर हो सकते हैं। माता-पिता को अपने बच्चों की रुचियों का सम्मान करते हुए उन्हें उसी दिशा में प्रोत्साहित करते रहना चाहिए।
नई शिक्षण पद्धियों को अपनाएं वहीं स्कूलों को भी इस दिशा में अपने स्तर पर प्रयास करने चाहिए। उन्हें स्कूली पाठ्यक्रम के साथ साथ नैतिक शिक्षा को भी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। शिक्षकों को बच्चों के साथ सिलेबस के अलावा उनकी रुचियों पर भी काम करने और मार्गदर्शन करने की जरूरत है। इससे बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ता है और वह अपनी क्षमताओं से परिचित होते हैं। उन्हें बच्चों को केवल किताबी ज्ञान तक सीमित रखने की जगह व्यावहारिक शिक्षा और आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित करना चाहिए। स्कूली शिक्षा पर कई दशकों से काम कर रहे शिक्षाविद अमृतांज इंदीवर कहते हैं कि बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को माता पिता से कहीं अधिक शिक्षक पहचानते हैं। ऐसे में उन्हें चाहिए कि वे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए उसकी क्षमता अनुसार ही काम करें और परीक्षा के दबाव को कम करने के लिए नए शिक्षण पद्धतियों को अपनाएं।
प्रेरणादायी किरदारों के बारे में बताएं वह कहते हैं कि शिक्षक बच्चों को प्रेरणादायक उदाहरणों के माध्यम से भी प्रेरित कर सकते हैं। वह उन्हें अल्बर्ट आइंस्टीन का उदाहरण दे सकते हैं, जिन्हें पढ़ने में कमजोर बच्चा माना जाता था। इसी बच्चे ने दुनिया को सिद्धांतों की एक नई दिशा दी या फिर खेल में रुचि रखने वाले बच्चों को सचिन तेंदुलकर का उदाहरण देकर हौसला बढ़ाया जा सकता है, जो पढ़ाई में औसत रहे। क्रिकेट के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। ये उदाहरण इस बात को साबित करते हैं कि शिक्षा का अर्थ केवल अंक प्राप्त करना ही नहीं है, बल्कि अपनी रुचि और क्षमता को पहचान कर उसमें श्रेष्ठता प्राप्त करने का नाम है।
वस्तुतः बच्चों को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है, लेकिन उन्हें मानसिक तनाव से बचाना उससे भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा में पास होना नहीं, बल्कि जीवन की कठिनाइयों से निपटने की क्षमता विकसित करने का नाम है।
माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों की रुचि को समझें और उनकी क्षमताओं के अनुसार उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें। अगर शिक्षा को केवल अंक प्राप्त करने तक सीमित रखा गया तो हम बच्चों के मानसिक और बौद्धिक विकास को बाधित कर देंगे। इसलिए जरूरी है कि शिक्षा प्रणाली को अधिक समावेशी, व्यावहारिक और तनाव मुक्त बनाया जाए। तभी हम डिप्रेशन से मुक्त एक स्वस्थ, आत्मविश्वास से भरी सशक्त पीढ़ी का निर्माण करने में कामयाब हो पाएंगे।
-आरती शांत, जम्मू