वन विभाग के अनुमान के अनुसार, गड़सा और पार्वती रेंज की लगभग 20 हजार हेक्टेयर वन संपदा प्रभावित हुई। वन निगम द्वारा स्लीपर बनाने के लिए संग्रहित लकड़ी भी बह गई। वन विभाग के अनुसार, केवल गड़सा रेंज में ही 2022 से अब तक 8000 क्यूबिक मीटर लकड़ी निकाली गई थी, जो बादल फटने से आई बाढ़ में बह गई। बादल फटने की इस घटना ने एक बार फिर हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि आखिर क्यों पहाड़ों में ये घटनाएं बार-बार हो रही हैं? और क्या हम इनसे बचाव की कोई पुख्ता रणनीति तैयार कर पा रहे हैं? जलवायु परिवर्तन, अंधाधुंध विकास और पर्वतीय पारिस्थितिकी के संतुलन में हस्तक्षेप, ये सभी कारण बादल फटने की घटनाओं को न केवल अधिक आम बना रहे हैं बल्कि और खतरनाक भी। यह पहली बार नहीं, जब पहाड़ों ने इस तरह का कोप देखा हो। सबसे पहले समझें कि बादल फटना आखिर होता क्या है? भारत मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के अनुसार, जब किसी सीमित भौगोलिक क्षेत्र (लगभग 10 वर्ग किलोमीटर) में एक घंटे के भीतर 100 मिलीमीटर या उससे अधिक वर्षा होती है तो इसे बादल फटना कहा जाता है। यह कोई विस्फोट नहीं होता बल्कि सीमित क्षेत्र में अत्यधिक तीव्र गति से हुई वर्षा की घटना होती है। यह इतनी तीव्र होती है कि जल निकासी प्रणाली उसे झेल नहीं पाती और परिणामस्वरूप भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह घटना आमतौर पर समुद्र तल से 1000 से 2500 मीटर की ऊंचाई वाले इलाकों में देखने को मिलती है। ‘क्युमुलोनिम्बस’ नामक भारी और घने वर्षणकारी बादल, जो भारी वर्षा और बिजली गिरने के लिए जिम्मेदार होते हैं, बादल फटने का प्रमुख कारण होते हैं। गर्म हवा जब जमीन से ऊपर उठती है और बादलों में जाकर नमी को ऊपर ले जाती है, तब वह बारिश की बूंदों के रूप में वहां जमा होती जाती है। यदि ऊपर की ओर जाने वाली गर्म हवा अचानक कमजोर हो जाती है तो बादलों में संचित भारी नमी एक ही बार में बहुत तीव्र गति से नीचे गिरती है। इस प्रक्रिया को ‘लैंगमुइर प्रेसिपिटेशन प्रोसेस’ कहा जाता है। भारत में बादल फटने की घटनाओं में लगभग 90 प्रतिशत मामले हिमालयी क्षेत्र अथवा उसके आसपास के राज्यों (जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों) में देखने को मिलते हैं। प्रश्न यह है कि हिमालय जैसे क्षेत्रों और पहाड़ी इलाकों में ये घटनाएं अधिक क्यों होती है? इसका कारण है स्थलाकृतिक उत्थापन ओरोग्राफिक लिफ्टिंग। जब नम हवाएं पहाड़ों से टकराती हैं तो उन्हें ऊपर उठना पड़ता है। ऊंचाई बढऩे के साथ तापमान गिरता है, जिससे हवा में मौजूद नमी संघनित होकर भारी वर्षा का कारण बनती है। जब यह संघनन असामान्य तीव्रता प्राप्त कर लेता है, तब बादल फटने जैसी स्थिति उत्पन्न होती है।
इसके अलावा, हिमालयी क्षेत्र में मौसम की अस्थिरता, तापमान और हवा की दिशा में तेजी से बदलाव, मानसूनी हवाओं के अचानक टकराव जैसी स्थितियां बादल फटने की संभावनाओं को और भी बढ़ा देती हैं। हिमालयी क्षेत्र में तापमान, वायुदाब और हवाओं की दिशा में तेज बदलाव बादलों को अस्थिर कर देता है। इसके अलावा जब बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आने वाली मानसूनी हवाएं टकराती हैं तो यह बहुत अधिक नमी लेकर आती हैं, जो पहाड़ों से टकराकर भारी बारिश या बादल फटने का कारण बनती हैं। भारत में पिछले कुछ वर्षों में बादल फटने की घटनाओं की संख्या और तीव्रता में वृद्धि देखी गई है। 2023 में अमरनाथ गुफा के पास अचानक हुई बादल फटने की घटना में 16 तीर्थयात्रियों की मौत हो गई थी और दर्जनों लापता हो गए थे। 2022 में धर्मशाला में इसी प्रकार की घटना से भूस्खलन और घरों को व्यापक क्षति पहुंची थी। 2021 में उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर टूटने के साथ बादल फटने की घटना ने 70 से अधिक लोगों की जान ली। 2013 की केदारनाथ त्रासदी तो आज भी लोगों के जेहन में ताजा है, जिसमें 5000 से अधिक लोगों की जान चली गई थी।
इन सभी घटनाओं का एक साझा पहलू है मानवजनित गतिविधियों का दखल। पहाड़ी इलाकों में तेजी से बढ़ता शहरीकरण, अनियंत्रित निर्माण कार्य, जंगलों की कटाई, अवैज्ञानिक तरीके से सड़क और सुरंगों का निर्माण, नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह में अतिक्रमण जैसी गतिविधियां इस समस्या को और गंभीर बना रही हैं। जलवायु परिवर्तन ने इसमें आग में घी का काम किया है। मौसम में असामान्य बदलाव, अत्यधिक वर्षा के पैटर्न का बदलना और ग्लेशियरों का पिघलना इस आपदा की तीव्रता और आवृत्ति को लगातार बढ़ा रहा है। बादल फटना अपने साथ भीषण तबाही लाता है। जब अत्यधिक मात्रा में पानी एक साथ गिरता है तो नदी-नालों का जलस्तर अचानक बढ़ जाता है, जिससे ‘फ्लैश फ्लड’ यानी तात्कालिक बाढ़ आ जाती है। पानी के साथ बहते मलबे, पत्थरों और पेड़ों के कारण भूस्खलन और संरचनात्मक क्षति होती है, सड़कें, पुल, भवन, संचार व्यवस्था और बिजली जैसे संसाधन पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं। वन संपदा की दृष्टि से भी बादल फटने की घटनाएं अत्यंत विनाशकारी हैं। कुल्लू की घटना में जिस प्रकार रई और देवदार जैसे सैंकड़ों पेड़ बह गए, उससे न केवल जैव विविधता को भारी नुकसान हुआ बल्कि भू-क्षरण और भूस्खलन की संभावना भी कई गुना बढ़ गई।
पेड़ों की जड़े मिट्टी को बांधने का कार्य करती हैं लेकिन जब ये पेड़ ही नष्ट हो जाते हैं तो मिट्टी की पकड़ कमजोर पड़ जाती है, जिससे आने वाले वर्षों में और अधिक आपदाओं की संभावना बन जाती है। भारत में पूर्वानुमान प्रणाली की सीमाएं इस आपदा की भयावहता को और बढ़ा देती हैं। हालांकि आइएमडी और इसरो द्वारा डॉप्लर रडार, सैटेलाइट इमेजिंग और वायुमंडलीय मॉडलिंग की मदद से चेतावनी दी जाती है लेकिन बादल फटना एक अत्यंत स्थानीय घटना होती है, जिसकी सटीक भविष्यवाणी अब तक तकनीकी रूप से संभव नहीं हो पाई है। विशेषकर दूरस्थ और दुर्गम इलाकों में चेतावनी प्रणाली का अभाव राहत कार्यों में बड़ी बाधा उत्पन्न करता है। ऐसे में अब सवाल उठता है कि इन घटनाओं से हम कैसे बच सकते हैं? सबसे पहले तो जरूरत है मजबूत पूर्वानुमान प्रणाली और व्यापक चेतावनी तंत्र की। हर पहाड़ी जिले में डॉप्लर रडार प्रणाली की स्थापना, फ्लैश फ्लड अलर्टिंग सिस्टम, जलप्रवाह मार्गों की जियो-टैगिंग और स्थानीय मौसम केंद्रों की संख्या बढ़ाना प्राथमिकता होनी चाहिए। आम जनता की भूमिका भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। जब मौसम विभाग द्वारा चेतावनी जारी की जाती है तो उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। नदी किनारे, नालों और भूस्खलन संभावित क्षेत्रों से दूर रहना चाहिए। स्थानीय प्रशासन की सलाह माननी चाहिए और यदि संभव हो तो पहले से ही किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना चाहिए। सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों पर सख्त निगरानी रखनी चाहिए। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों में अतिक्रमण, अवैध कटाई और खनन जैसी गतिविधियों पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।
इसके अलावा, दीर्घकालिक उपायों के तहत पारिस्थितिकी आधारित विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें स्थानीय संसाधनों का संतुलित उपयोग, वर्षा जल संचयन, जैविक खेती और ग्रामीणों को प्राकृतिक आपदा से निपटने का प्रशिक्षण शामिल हो। कुल मिलाकर, बादल फटना एक ऐसी प्राकृतिक आपदा है, जो चंद घंटों में वर्षों की मेहनत और विकास को मलबे में तब्दील कर सकती है। हालांकि ऐसी घटनाएं न तो नई हैं और न ही दुर्लभ लेकिन इनकी बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता हमारी चेतावनी के लिए पर्याप्त है। यदि हम समय रहते नहीं चेते तो हर वर्ष मानसून के साथ यह आपदा और विकराल होती जाएगी। प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन बनाना अब केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रह गया, यह हमारे अस्तित्व का प्रश्न बन गया है। बारिश प्रकृति का आशीर्वाद है लेकिन यह आशीर्वाद तभी तक फलदायक है, जब तक हम उसे उसकी मर्यादाओं में बहने दें। जैसे ही हम उसके प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप करते हैं, वह तबाही बनकर लौटती है, कभी बादल फटने के रूप में, कभी भूस्खलन तो कभी ग्लेशियर टूटने के रूप में। इसलिए अब समय आ गया है कि हम प्रकृति से लडऩा नहीं, उसके साथ तालमेल बिठाना सीखें। तभी हम स्वयं को अपने समाज को और आने वाली पीढिय़ों को इन आपदाओं से सुरक्षित रख पाएंगे।