जिस ‘हरी घास पर क्षण भर बैठने’ की बात अज्ञेय ने कही थी, ग्लोबल वार्मिंग के चलते वह बेशक उतनी हरी न रह गई हो, लेकिन दो ऋतुओं की संधि बेला में प्रकृति में हो रहे यह बदलाव बरबस ही आकर्षित करते हैं। इस त्योहार की सबसे बड़ी खासियत है कि यह ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, जाति भेद की दीवारों को तोड़कर हमारी बहुलतावादी सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता है। जीवंतता का यह उत्सव जड़ता को तोड़कर नवीनता का संदेश देता है। इसके अलावा यह खतरे उठाकर की जाने वाली अभिव्यक्ति का त्योहार भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि होली के अवसर पर ऐसे आचरण और अभिव्यक्ति की भी छूट है, जो हमारे नियंत्रित और अनुशासित जीवन में संभव नहीं है। होली के बाद मन निर्मल होकर उत्साहपूर्वक अपने काम में लग जाता है। लेकिन तमाम अच्छाइयों के बीच बुरा पक्ष यह है कि होली की मस्ती के नाम पर उच्छृंखलता भी यदा-कदा चरम पर पहुंच जाती है। कई बार इसके नतीजे आपसी सद्भाव बिगडऩे के खतरे तक पहुंच जाते हैं। इसे रोकने की जरूरत है।
चिंता इस बात की भी है कि आज सोशल मीडिया के युग में सामाजिकता आपसी मेलजोल के नाम पर किसी पोस्ट को लाइक और शेयर करने तक सीमित रह गई है। होली, नवजीवन का संदेश लेकर आए ताकि बहुलतावादी नए विकसित भारत के निर्माण में हम योगदान दे सकें। हर बार की तरह सबके जीवन में खुशियों के रंग भरकर तमाम वर्जनाओं को तोडऩे वाले इस त्योहार की गरिमा इसी में है कि हम इसकी मर्यादा बनाए रखें और पर्व का मौलिक आनंद लें।