यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन में शामिल देशों में 23-37 फीसदी तक लोग ऐसे कामों में लगे हैं, जो उनकी शिक्षा से मेल नहीं खाते। भारत में यह अंतर अधिक गहरा है। कारण स्पष्ट हैं कि हमारी शिक्षा प्रणाली आज भी औद्योगिक मांगों से कटी हुई है। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम सैद्धांतिक हैं जबकि, बाजार व्यवहारिक कुशलता की मांग करता है। भारत में केवल चार फीसदी युवाओं को ही औपचारिक व्यावसायिक प्रशिक्षण मिला है, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 50 फीसदी से ऊपर है। इससे साफ है कि एक बड़ी आबादी या तो अधूरी शिक्षा पा रही है या फिर अपूर्ण कौशल के साथ मैदान में उतर रही है। भारत जैसे देश में जहां हर साल लाखों विद्यार्थी ग्रेजुएट होते हैं, वहां यदि आधे से ज्यादा अपनी योग्यता के अनुसार काम न पा सकें तो यह मानव संसाधन की बर्बादी नहीं बल्कि, सामाजिक असंतोष और आर्थिक अवसाद का बीज भी बनता है।
प्रश्न यह नहीं है कि समस्या कितनी बड़ी है, बल्कि यह है कि हम इसे कैसे हल करें। सबसे पहले हमें शिक्षा व्यवस्था को उद्योगों से जोडऩा होगा। पाठ्यक्रम में प्रायोगिक कौशल, इंटर्नशिप और लाइव प्रोजेक्ट्स को अनिवार्य करना चाहिए। दूसरा, व्यावसायिक शिक्षा को केवल पिछड़े या कमजोर छात्रों का विकल्प मानना बंद कर, इसे मुख्यधारा में लाना होगा। कोरिया, जर्मनी जैसे देशों में व्यावसायिक शिक्षा को उतना ही महत्त्व मिलता है जितना अकादमिक डिग्रियों को। भारत को भी ऐसा मॉडल अपनाना होगा। तीसरा, कौशल रणनीति बनानी होगी, जिससे स्थानीय उद्योगों की मांग के अनुसार युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके। चौथा, हमें ‘ताउम्र सीखने’ के सिद्धांत को अपनाना होगा। बदलती तकनीक और बाजार के अनुसार निरंतर प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होगी।